अवेस्ता से भौगोलिक ज्ञान तथा उससे ईरानी शाखा के इतिहास पर प्रकाश


पारसियों के इष्टदेव ज़ोरोस्टर को ज़ेन्दावेस्ता में ’मंथ्रन’ कहा गया है। आर्यों के प्राचीन इष्टदेव पारसी और भारतीय आर्यों के बिलकुल एक ही हैं। ज़ोरोस्टर ने आर्यों से मतभेद होते ही देव-पूजक आर्यों के विरुद्ध बग़ावत शुरु कर दी। ऋग्वेद के प्राचीन सूक्तों में सुर और असुर की भिन्नता न होने पर पीछे यह भेदभाव बहुत प्रबल हो गया है। असुरों के विरुद्ध देवदल और देवदल के विरुद्ध असुरदल पीछे प्रकट हो गये हैं। आश्चर्य तो यह है कि जिस तरह फ़ारस यानी ईरान में देव का अर्थ राक्षस हो गया है, उसी प्रकार भारतवर्ष में भी असुर का अर्थ राक्षस ही समझा जाता है ! मुसलमानों के "हिन्दू" शब्द की व्याख्या में भी यही भेदभाव सन्निहित पाया जाता है, जिसका अर्थ वे कुछ और ही करते हैं। कम-से-कम इतना तो निश्चित है कि भारतीय तथा पारसी आर्य किसी बड़ी बात को लेकर ही एक दूसरे से ज़ुदा हुए।
दोनों शाखाओं के विद्रोह पर दृढ़ विश्वास तब और भी हो जाता है, जब हम यह देखते हैं कि इन्द्र, जो भारतीय शाखा के आराध्य देव हैं, पारसियों के लिये एक दुर्दान्त दैत्य हैं। ऋग्वेद की ऋचाएँ इसकी साक्षी हैं। इन्द्र, जिनके आर्य लोग बड़े कृतज्ञ हैं, बारबार अपनी वीरता की प्रशंसा सुनते हैं। उन्होंने असुरों का दल-बल नष्ट कर आर्यों की सहायता की है। देव और असुरों की लड़ाई में वह सदा अग्रसर रहते हैं। इन्द्र इन्हीं स्वर्गीय पर्वतों पर रहते थे। सुमेरु-पर्वत का निर्देश हमें Thianshan या Celestial या स्वर्गीय पर्वतों में मिल जाता है। अवश्य ही सुर और असुरों का यह घोर युद्ध ईरान के पूर्वी सीमा-प्रान्त में हुआ होगा।
ये दोनों शाखायें कब और कहाँ अलग हुईं, इसका ठीक-ठीक अंदाज़ा करना कठिन है; परन्तु इतना अनुमान किया जा सकता है कि आक्सस के दक्षिण और थियानशान या मेरु-पर्वत-माला के निकटवर्ती प्रदेशों में कहीं इनके दो दल हुए। इन्द्र भारतीय शाखा के प्रमुख जान पड़ते हैं। अहुरमज़्द के नेतृत्व में दूसरा दल रहा होगा। एक का दूसरे को विधर्मी समझना तथा एक का दूसरे के इष्टदेव को दैत्य बनाना धार्मिक असहिष्णुता की पराकाष्ठा है। अस्तु, ज़ेन्दा अवेस्ता ’आर्यानां व्रजः’ से मर्व, बल्ख, ईरान, काबुल और सप्तसिन्धु का निर्देश देता है। इससे यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ईरानी शाखा यानी पारसी, आर्यों से विलग हो, ईरान की अधित्यका को तय करते हुए काबुल की राह से सप्तसिन्धु तक फैल गये।

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