अहीर(संस्कृत: आभीर)
अहीर(संस्कृत: आभीर):प्रमुखतः एक हिन्दू भारतीय जाति समूह, अहीरों को एक जाति वर्ण, आदिम जाति या नश्ल के रूप मे वर्णित किया जाता है, जिन्होने भारत व नेपाल के कई हिस्सों पर राज किया। यदि इन्हें अभीर जाति से संबंधित किया जाये तो ये विदेशी ठहरते हैं।अहीर एक पशुपालक जाति है, जो उत्तरी और मध्य भारतीय क्षेत्र में फैली हुई है। इस जाति के साथ बहुत ऐतिहासिक महत्त्व जुड़ा हुआ है, क्योंकि इसके सदस्य संस्कृत साहित्य में उल्लिखित आभीर के समकक्ष माने जाते हैं।
पाकिस्तान में पंजाब में यह एक प्रमुख जनजाति (पंजाबी मुस्लमान) है।
जब आर्य पश्चिम एशिया पहुंचे तब अहीर (दक्षिण एशियाइ पुरुष/South Asian males) पश्चिम एशिया पर राज्य करते थेI उन्होंने आर्य महिलाओं (पश्चिम यूरेशियन महिलाओं) से शादी की और आर्यों की वैदिक सभ्यता का स्विकार कियाI
आभीर (हिंदी अहीर) एक घुमक्कड़ जाति थी जो शकों की भांति बाहर से हिंदुस्तान में आई। इस जाति के साथ बहुत ऐतिहासिक महत्त्व जुड़ा हुआ है, क्योंकि इसके सदस्य संस्कृत साहित्य में उल्लिखित आभीर के समकक्ष माने जाते हैं। इस जाति के लोग काफी संख्या में हिंदुस्तान आए तथा यहाँ के पश्चिमी, मध्यवर्ती ओर दक्षिणी हिस्सों में बस गए। इनकी देहयष्टि सीधी खड़ी होती है और ये उन्नतनास होते हैं। जाति से शक्तिमान् हैं, शरीर से नितांत पुष्ट ओर सशक्त। जातीय रूप में इनमें नृत्य होता है, जिसमें पुरुष स्त्री दोनों ही भाग लेते हैं। जातीय नृत्य का प्रचलन भारत की प्रकृत जातियों में नहीं है। अहीर नारियों (आभीरी) में पर्दा भी कभी नहीं रहा। दक्षिण में उत्तरी कोंकण ओर उसके आसपास के प्रदेशों में इनका जोर था। आगे चलकर आभीरों ने वैदिक धर्म स्वीकार कर लिया तथा वे सुनार, बढ़ई ओर ग्वाले आदि उपजातियों में बंट गए। कई जगह तो वे अपने को ब्राह्मण मानकर जनेऊ भी पहनने लगे।
आभीर गण
आभीर गण का उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य में मिलता है।
वे सिन्धु नदी के निचले काँठे और पश्चिमी राजस्थान में रहते थे।
'पेरिप्लस' नामक ग्रन्थ तथा टालेमी के भूगोल में भी आभीर गण का उल्लेख है।
ईसा की दूसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आभीर राजा पश्चिमी भारत के शक शासकों के अधीन थे।
ईश्वरदत्त नामक आभीर राजा महाक्षत्रप बन गया था।
ईसवीं तीसरी शताब्दी में आभीर राजाओं ने सातवाहन राजवंश के पराभव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
समुद्रगुप्त के इलाहाबाद के स्तम्भ लेख में आभीरों का उल्लेख उन गणों के साथ किया गया है, जिन्होंने गुप्त सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली थी।
आभीर गण का उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य में मिलता है।
वे सिन्धु नदी के निचले काँठे और पश्चिमी राजस्थान में रहते थे।
'पेरिप्लस' नामक ग्रन्थ तथा टालेमी के भूगोल में भी आभीर गण का उल्लेख है।
ईसा की दूसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आभीर राजा पश्चिमी भारत के शक शासकों के अधीन थे।
ईश्वरदत्त नामक आभीर राजा महाक्षत्रप बन गया था।
ईसवीं तीसरी शताब्दी में आभीर राजाओं ने सातवाहन राजवंश के पराभव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
समुद्रगुप्त के इलाहाबाद के स्तम्भ लेख में आभीरों का उल्लेख उन गणों के साथ किया गया है, जिन्होंने गुप्त सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली थी।
भारत की मौजूदा आर्य क्षत्रिय(वैदिक क्षत्रिय) जातियों में हट्टी, गुर्जर और अभिरा/अहिर(पाल) सबसे पुराने क्षत्रिय हैं। जब तक जाट, राजपूत, और मराठा नामों की सृष्टि भी नहीं हुई थी, हट्टी और अहीरों का अभ्युदय हो चुका था।
जाटों का इससे रक्त सम्बन्ध तथा सामाजिक सम्बन्ध मराठों और गूजरों जैसा निकटतम है।
यादव प्राय: 'अहीर' शब्द से भी नामांकित होते हैं, जो संभवत: आभीर जाति से संबद्ध रहे होंगे।
कुछ लोग आभीरों को अनार्य कहते हैं, परन्तु 'अहीरक' अर्थात आहि तथा हरि अर्थात नाग अर्थात् कृष्ण वर्णी रहे होंगे या अहि काले तथा तेज शक्तिशाली जाति अहीर कहलाई होगी। यदि इन्हें अभीर जाति से संबंधित किया जाये तो ये विदेशी ठहरते हैं।
श्रीकृष्ण को जाट और गूजर दोनों ही पूर्व-पुरूष मानते हैं। यद्यपि अहीरों में परस्पर कुछ ऐसी दुर्भावनाएं उत्पन्न हो गई हैं कि वे स्वयं एक शाख वाले, दूसरी शाख वालों को, अपने से हीन समझते हैं। लेकिन जाटों का सभी अहीरों के साथ चाहे वे अपने लिए यादव, गोप, नंद, आभीर कहें, एक-सा व्यवहार है। जैसे खान-पान में जाट और गूजरों में कोई भेद नहीं, वैसे ही अहीर और जाटों में भी कोई भेद नहीं।
इतिहास में इनके रहने का भी स्थान निकट-निकट बतलाया गया है। भारत से बाहर भी जहां कहीं जाटों का अस्तित्व पाया जाता है, वहीं अहीरों की बस्तियां भी मिलती हैं। चीन में जहां जाट को 'यूची' नाम से याद किया गया है, वहीं अहीरों को 'शू' नाम से पुकारा गया है।
http://vinaykumarmadane.blogspot.in/
यादव प्राय: 'अहीर' शब्द से भी नामांकित होते हैं, जो संभवत: आभीर जाति से संबद्ध रहे होंगे।
कुछ लोग आभीरों को अनार्य कहते हैं, परन्तु 'अहीरक' अर्थात आहि तथा हरि अर्थात नाग अर्थात् कृष्ण वर्णी रहे होंगे या अहि काले तथा तेज शक्तिशाली जाति अहीर कहलाई होगी। यदि इन्हें अभीर जाति से संबंधित किया जाये तो ये विदेशी ठहरते हैं।
श्रीकृष्ण को जाट और गूजर दोनों ही पूर्व-पुरूष मानते हैं। यद्यपि अहीरों में परस्पर कुछ ऐसी दुर्भावनाएं उत्पन्न हो गई हैं कि वे स्वयं एक शाख वाले, दूसरी शाख वालों को, अपने से हीन समझते हैं। लेकिन जाटों का सभी अहीरों के साथ चाहे वे अपने लिए यादव, गोप, नंद, आभीर कहें, एक-सा व्यवहार है। जैसे खान-पान में जाट और गूजरों में कोई भेद नहीं, वैसे ही अहीर और जाटों में भी कोई भेद नहीं।
इतिहास में इनके रहने का भी स्थान निकट-निकट बतलाया गया है। भारत से बाहर भी जहां कहीं जाटों का अस्तित्व पाया जाता है, वहीं अहीरों की बस्तियां भी मिलती हैं। चीन में जहां जाट को 'यूची' नाम से याद किया गया है, वहीं अहीरों को 'शू' नाम से पुकारा गया है।
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पा. मा. चांदोरकर
ReplyDeleteश्रीकृष्ण ने अपना बचपन जिनमें बिताया वह गोकुल वृंदावन के नंदादी गोप आभीर थे, यह प्रसिद्ध है यादवों को गोप यह सामान्य संज्ञा थी । ब्रज के नंदादि गोप मूल यादव थे गोप आभीर यह स्वतंत्र जाति नहीं बल्कि एक व्यवसाय था जो यादव ने अपने रूचि के अनुसार चुना था।
चांदोरकर पा. मा. खान्देश व खान्देशी भाषा पुणेः भारत इतिहास संशोधन मंडळ
भा.र.कुलकर्णी (1942)
" अहिरोके हथियार, तलवार, ढाल और कुल्हाड़ी आर्यों के समान थे। वे पशुपालन करते थे, वे पितृपूजक थे, वे अग्नि-पूजक थे, और अहीर किसी भी युद्ध में दिखाई देते थे। आभीर मूल रूप से युद्धप्रिय प्रवृत्ति के लोग थे जिनकी गणना श्रेष्ठ योद्धाओमे की जाती थी।
कुलकर्णी भा. र. अहिराणी भाषा एवम संस्कृती शिरपूर: दि ब वाघमारे
वि.का.राजवाडे
अहीर जातीसंस्थ लोग इस दृष्टिसे इतिहासमे दृष्टिगोचर होते है। और आज भी वैसेही परंपरासे ही जातीसंस्थ है। उनके देव और धर्म आर्योंके जैसे पहले थे और आज भी है।
डॉ. रा. श्री. मोरवंचीकर
कृष्ण और अहिरोका रक्तका नाता है, वह उनका दैवत एवं लोकप्रिय नेता है। आभीर कृषिप्रधान संस्कृतिके जनक थे, जलक्रीड़ा, नृत्य अहिरोके छंद थे। उन्हीके नामसे खान्देश में चित्रकला, शिल्पकला, वास्तुकला इनका विकास हुआ। पीतलखोरा, घटत्कोच, बाघ इत्यादि लेणिया उनके उच्चाभिरूचिके दर्शन कराते है ऐसे श्रेष्ठ आभीर संस्कृतिको मे नमन करता हु।
जगताप पी.डी. खान्देश का सांस्कृतिक इतिहास, का.स.वाणी २००४ पृष्ठ ६८
डॉक्टर दा. गो. बोरसे
देवगिरीं के यादवोंको अहीरराजे, गवलीराजे कहा जाता था। जडेजा एवं चुडासामा खुदको चन्द्रवंशीय अहीर मानते थे। अहिरोका मूलस्थान भारत है और वे इस मातृभूमि के सुपुत्र है वे सूर्यपुत्र थे, और उन्हें यदुवंशीय आर्य कहा जाता था। आर्यत्व के आवश्यक लक्षण उनको पूर्णरूपसे लागु होता था।
श. गो. जोशी (1940)76
आभीर हे यादववंशी आहेत. यादवांना आठव्या शतकात दक्षिणेत राज्य केले व बाराव्या व तेराव्या शतकात देवगिरी (दौलतावाद) इथे त्यांची सत्ता असल्याचे दिसते.... तात्पर्य आभीर नावाचा एक प्रबळ आर्यवंश हिंदूस्थानात होऊन गेला. हे इतिहास पूराणावरून सिध्द होते.
2) पा. मा. चांदोरकर77
‘‘श्रीकृष्णांनी बालपण ज्यांच्यात घालवले ते गोकुळ वंृदावनातील नंदादि गोप हे आभीर होते. हे प्रसिध्दच आहे. यादव हेच गोप उर्फ आभीर ब्रजातील नंदादी गोप हेही मूळचे यादव होते. गोप-आभीर एक स्वतंत्र जात नसून एक धंदा होता आणि यादवांनी तो आपल्या आवडीखातर पत्करलेला होता असे दिसते.
१)नंदवंश प्रदिप 34- ‘‘नंद क्षत्रियः गोपालवाद गोप्’’ २) शक्तिसंगमतंत्र - ‘‘आहूकवंशात समुद्भूताः आभीर इतिप्रकिर्तितः
ReplyDelete३)जाति विवेकाध्याय:- आहूक जन्मवन्तश्च आभीराः क्षत्रिया भवन
४)नंदवंशप्रदिप:- आहुकवंश सम्भूता आभीरा:
५)स्कंदपूराण गोदाविंध्याद्रि मध्ये तु देश आभिर संज्ञितः
तास्मिन्देशे समुत्पन्ना आभीरा नाम द्विजः
६) विष्णुशर्मा-पंचतंत्र
आभीर देशे किल चंद्रकांतम
त्रिभिरवराटैर विपणंति गोपा
७)वात्स्यायन -कामसुत्र
आभीरं ही कोट्राजं परभवनगतं भ्रातृप्रयुक्तो रजको जघान 5-5-1753
यादव और अहीर अलग-अलग कुल हैं
ReplyDeleteयादव-प्राण-कार्ये च शक्राद अभीर-रक्शिणे।
गुरु-मातृ-द्विजानां च पुत्र- दात्रे नमो नमः।।
(Garga Samhita 6:10:16)
Translation: जिन्होंने यादवों की रक्षा की, जिन्होंने राजा इंद्र से अहीरों की भी रक्षा की और अपनी माता, गुरु और ब्राह्मण को उनके खोए हुए बेटों को वापस दिलाया, मैं आपको आदरणीय प्रणाम करता हूँ।
अन्ध्रा हूनाः किराताश् च पुलिन्दाः पुक्कशास् तथा
अभीरा यवनाः कङ्काः खशाद्याः पाप-योणयः
(Sanatakumara Sahmita - Sloka 39)
Translation : अंध्र, हुण, किरात, पुलिंद, पुक्कश, अहीर, यवन, कंक, खस और सभी अन्य पापयोनि से उत्पन्न होने वाले भी मंत्र जप के लिए योग्य हैं।
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे ।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥ (Ramcharitmanas 7:130)
Translation अहीर, यवन, किरात, खस, श्वपच (चाण्डाल) आदि जो अत्यंत पाप रूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्री रामजी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥
किरात- हूणान्ध्र- पुलिन्द-पुक्कश आभीर- कङ्क यवनाः खशादयाः।
येन्ये च पापा यद्-अपाश्रयाश्रयाः शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः।।
(Srimad Bhagavatam 2:4:18)
Translation: किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, अहीर, कङ्क, यवन और खश तथा अन्य पापीजन भी जिनके आश्रयसे शुद्ध हो जाते हैं, उन भगवान् विष्णु को नमस्कार है ॥
ब्राह्मणादुप्रकन्यायामावृतो नाम जायते ।
आभीरोऽम्बष्ठकन्यायामायोगव्यां तु धिग्वणः ॥ १५ ॥
(Manusmriti 10:15)
Translation: उग्र कन्या (क्षत्रिय से शूद्रा में उत्पन्न कन्या को उग्रा कहते हैं) में ब्राह्मण से उत्पन्न बालक को आवृत, अम्बष्ठ (ब्राह्मण से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) कन्या में ब्राह्मण से उत्पन्न पुत्र अहीर और आयोगवी कन्या (शूद्र से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) से उत्पन्न पुत्र को धिग्वण कहते हैं।
अन्त्यजा अपि नो कर्म यत्कुर्वन्ति विगर्हितम् आभीरा ।
स्तच्च कुर्वति तत्किमेतत्त्वया कृतम् ॥ ३९ ॥
(Skanda Purana: Nagarkhand: Adhyaya 192 Sloka 39)
Translation: अन्यज जाति के लोग भी जो घृणित कर्म नहीं करते अहीर जाति के लोग वह कर्म करते हैं।
आभीरैर्दस्युभिः सार्धं संगोऽभूदग्निशर्मणः ।
आगच्छति पथा तेन यस्तं हंति स पापकृत् ॥ ७ ॥
(Skanda Puran: Khanda 5:Avanti Kshetra Mahatmyam : Adhyay 24: Sloka 7)
Translation : उस जंगल में अहीर जाति के कुछ लुटेरे रहते थे। उन्हीं के साथ अग्निशर्मण की संगति हो गयी। उसके बाद बन के मार्ग में आने वाले लोकों को वह पापी मारने लगा।
उग्रदर्शनकर्माणो बहवस्तत्र दस्यवः ।
आभीरप्रमुखाः पापाः पिबन्ति सलिलं मम ॥ ३३ ॥
तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पापकर्मभिः ।
अमोघः क्रियतां राम अयं तत्र शरोत्तमः ॥ ३४ ॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मनः ।
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागरदर्शनात् ॥ ३५ ॥
(Valmiki Ramayan -Yudhkand: Sarg22: Shlok 33-35)
Translation : वहाँ अहीर आदि जातियों के बहुत-से मनुष्य निवास करते हैं, जिनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं। वे सब-के-सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं ॥ ३३ ॥ उन पापाचारियों का स्पर्श मुझे प्राप्त होता रहता है, इस पाप को मैं नहीं सह सकता। श्रीराम ! आप अपने इस उत्तम बाण को वहीं सफल कीजिये ॥ ३४ ॥ महामना समुद्र का यह वचन सुनकर सागर के दिखाये अनुसार उसी देश में श्रीरामचन्द्रजी ने वह अत्यन्त प्रज्वलित बाण छोड़ दिया ॥ ३५ ॥
शूद्राभीरगणाश्चैव ये चाश्रित्य सरस्वतीम्।
वर्तयन्ति च ये मत्स्यैर्ये च पर्वतवासिनः।। १०।।
(Mahabharata -Sabhaparva:Adhyay 35:Shlok 10)
Translation : सरस्वती नदी के तट पर रहने वाले शूद्र अहीर गण थे। मत्यस्यगण के पास रहने वाले और पर्वतवासी इन सबको नकुल ने वश में कर लिया ।
यादव महिलाओं के साथ अहीरों ने किया बलात्कार
ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतसः
आभीरा मंत्रयामासः समेत्याशुभदर्शन का "
प्रेक्षतस्तवेव पार्थस्य वृषणयन्धकवरस्त्रीय
मुरादाय ते मल्लेछा समन्ताजज्नमेय् ।
(Mahabharata: Mausalparva: Adhyay 7 Shlok -47,63)
Translation: लोभ से उनकी विवेक शक्ति नष्ठ हो गयी, उन अशुभदर्शी पापाचारी अहीरो ने परस्पर मिलकर हमले की सलाह की। अर्जुन देखता ही रह गया, वह म्लेच्छ डाकू (अहीर) सब ओर से यदुवंशी - वृष्णिवंश और अन्धकवंश कि सुंदर स्त्रियों पर टूट पड़े।