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 महाराष्ट्र शब्दाची व्युत्पत्ती आणि भाषासंबंधी-  'महाराष्ट्र’ या शब्दाची व्युत्पत्ती आणि त्याचा अर्थ यांबद्दल विद्वानांत एकमत नाही. प्राचीन भारतीय वाङ्मयामध्ये दक्षिणापथ या संज्ञेचा वापर जास्त आढळून येत असून नर्मदेचा दक्षिण तीर ते कन्याकुमारी एवढ्या मोठ्या भागाचा दक्षिणापथ असा निर्देश केला जात असे. सातवाहनांच्या शिलालेखांत दक्षिणापथाचा उल्लेख येतो. यावरून असे दिसते की, महाराष्ट्र या संज्ञेचा वापर नंतरच्या काळामध्ये सुरू झाला असावा. * इसवी सनाच्या पाचव्या-सहाव्या शतकांमध्ये महाराष्ट्र या संज्ञेचा आढळ पहिल्यांदा दिसून येतो. ‘महाराठी' या शब्दाचा वापर सातवाहनांच्या लेखांत, त्याचप्रमाणे त्यांच्या उत्तरकाळातील काही नाण्यांवर आढळून येतो. महावंस या बौद्धग्रंथात ‘महारठ्ठ’ या शब्दाचा उल्लेख आहे. या ग्रंथातील निर्देशानुसार बौद्ध भिक्षू मोगली पुत्र तिस्स याने इ.स.पू. तिसऱ्या शतकात महिसमंडळ, बनवासी, अपरांतक, महारठ्ठ येथे बौद्ध धर्मोप्रदेशक पाठविले होते. यावरून महारठ्ठ हे नाव इ.स.पू. तिसऱ्या शतकापासून रूढ असावे. रविकीर्तीच्या लेखात चालुक्यवंशीय दुसरा पुलकेशी हा तीन महाराष्ट्रकांवर राज्

परशुराम बकलोल थे, त्रेता युग मे थे, द्वापर मे भी थे..

परशुराम बकलोल थे, त्रेता युग मे थे, द्वापर मे भी थे। मजाक बना कर दिया इतिहास का इन पण्डो ने...त्रेतायुग में तो मनुष्य गुफाओं मे रहता था.. परशुराम जी ने 21बार भूमि क्षत्रीय विहीन नही की थी बलकी 21क्रुर राजाऔं को मारा था जो की ऐक क्षेत्रीय राजा थे इस बात का जिक्र हर जगह किया गया है बस कुछ लोगो ने  अपना इतिहास मैं महिमा बढाने के लिये इस बिन्दु को बडा किया है । बस इस सै ज्यादा कुछ नही है भगवान परशुराम जी ने खुद बात को अपने पावन मुख सै इस बात को कबूल किया है की मैने ""बसुधा को नृप विहीन कीना ""फिर भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥ सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा भावार्थ:-अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों को दे डाला। हे राजकुमार! सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को देख!॥मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बा़ढ़े॥ अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥4॥ भावार्थ:-आपको कभी रणधीर बलवान्‌ वीर नहीं मिले हैं। हे ब्राह्मण देवता ! आप घर ही में

There is no Vaidik Invasion

वैदिकांनी आक्रमण केले नाही. ते शस्त्रांनी कधेच लढले नाही. ते ग्रंथांतून विकृत्या पसरवत जिंकत राहिले. अगदी आजही महात्मा गांधी, आंबेडकर, पटेल यांचे कसे अपहरण करता हेत ते बघताय ना? ते लढत नाहीत पण बुद्धीभेद करतात. हिंदू या बुद्धीभेदाच्या हत्याराला बळी पडले. हिंदुंच्याच गोष्टी वैदिक वेष्टणात गुइंडाळुन दिल्यामुले हिंदु फसले. उदा. भक्ती मार्ग हिंदुंचाच. पण त्याचे थोतांड त्यांनी वाढवले. व्यक्तीगत पातलीवर असणा-या भक्तीला त्यांनी वैदिक सामुदायिक रुप दिले व मुळात नसलेले मुर्ती माहात्म्य वाढवले. चमत्कार कथा (अगदी संतांण्च्याही) बनवल्या. त्यामुळे हिंदू संतही वैदिकाळले गेले. आज स्वत:ला क्षत्रीय समजणारे वैदिकाळलेले हिंदू हे हिंदुंचे सर्वात मोठे शत्रू आहेत हे आपण विसरतो. संघात जानारेही वैदिकाळतात. आपण मंदिरांना देणग्या देतो, पण विचारांच्या प्रसारासाठी एक रुपया खर्च करत नाही. हा आपला दोष आहे. दुस-यांचे दोष महत्वाचे नाहीत. त्यावर चर्चा केल्याने आपले दोष दूर होत नाहीत. आपले दोष दुर केले तर हे बुद्धीभेदादी हत्यार कोणी वापरु शकणार नाही. संजय सोनवनी sir https://www.facebook.com/vinaykumar.madane/p

प्राचीन महाराष्ट्र के लोग

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प्राचीन महाराष्ट्र के लोग  प्राचीन महाराष्ट्र के शासक लोग कृष्णवर्णी 'महारट्टा'(रट्टा जाति के जागीरदार महारट्टा कहलाएं) जाति के थे। रट्टा भी मूलतः अनातोलिया (तुर्की) से आई पशुपाल जाति थी। उन्होंने श्वेतवर्णी(गोरी) कृषि सभ्यता की महिलाओं से शादी करना शुरू किया।

Taimur(मध्य-एशियाई मूल का लंगड़ा तैमूर/पारसी भाषा में 'तैमूरलंग')

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Taimur(मध्य-एशियाई मूल का लंगड़ा तैमूर/पारसी भाषा में 'तैमूरलंग') जब भारत में अत्याचार बढ़ गया था तब भारत में तैमूरलंग आया और सबको सीधा किया।उसने अत्यचारिओं को रोंग डाला या कुचल दिया।मुग़ल शासकों ने भारतीय महिलाओं से ही शादी करना शुरू किया और भारतीय रूढ़िवादी और मनुवादी लोगों की मस्ती को उतार दियां।दलित के घर अपनी बेटी देने का विचार भी नहीं करने वाले लोग खुद अपनी बेटी का हात मुगलों को सौंपा रहे थे।इसको कहते हैं समय का खेल।इतिहास ने बार बार ये सिद्धा कियां हैं की समय सबसे बलवान होता हैं। उसके बाद ब्रिटिश लोग आये और कई हिंदू कुप्रथाओं को बंद किया।भारत में सबसे पहले होलकर राजवंश के संस्थापक मल्हारराव होलकर जी ने अपनी बहु को सती जाने से मना कियां और समाज सुधारना की शुरुवात की थी।

सांड देव की पूजा के प्रमाण तो हैं सिन्ध तथा मैसापोटामियां मै तो मिलते हैं लेकिन गाय माता के नही..

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सांड देव की पूजा के प्रमाण तो हैं सिन्ध तथा मैसापोटामियां मै तो मिलते हैं लेकिन गाय माता के नही दिखे इस बात पर ऐक और बात आती है की मध्य एसिया मैं रहने बाले यहूदी कबीले जो जिनमैं जरुर गाय पूजनीय थीं और उस के बाद बौध्द के समय भी बौध्द धर्म मैं भी पूजनीय थी लेकिन उसके बाद बडी गडबड है इतिहास मैं क्यों की दो सबसै बडी सभ्यता जिनमैं प्रमाण नही मिल रहे हैं । दक्षिण भारत मै आज भी बहुत सी जातियां हैं जो शिव को मानती हैं और हिंदू को उसके अलावा किसी को नही लिंगायत ,रेडी यह कट्टर शिव भक्त हैं नेपाल मै भी कुछ कट्टर जातियां हैं जो मध्य नेपाल मैं रहती हैं और शिव भक्त हैं मतलब कुछ हद सै ज्यादा तक यह लोग सांड को पूजते हैं भारत पर हमला करने बाले कट्टर शिव भक्त हूंण भी सांड की पूजा करते थै... https://www.facebook.com/ram.gurjar.503/posts/1174779325981240

ये तो अजंता गुफा का चित्र हैं

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https://www.facebook.com/vinaykumar.madane/posts/1031044247027990

भले ही कडवा है पर है सच:-

भले ही कडवा है पर है सच:- भारत के इतिहास में 7वीं शती का चीनी यात्री ह्वेनसांग वह पहला व्यक्ति है, जिसने गीता की ओर संकेत करते हुए कहा है कि वह किसी ब्राह्मण का  जाली ग्रंथ है। यदि गीता प्राचीन है तो 9वीं शती से पहले भी इस पर कई भाष्य लिखे गए होते। आश्चर्य कि गीता जैसे लोकप्रिय ग्रंथ पर पहला भाष्य 9वीं शती में शंंकराचार्य द्वारा लिखा जाता है। सत्य ये है कि गीता को तो महाभारत में बाद में जोड़ दिया गया हैं। यदि गीता के रचयिता कृष्ण होते तो वे भला अपने (समुदाय) को शूद्र वर्ण में क्यों रखते? साँवले रंग के कृष्ण तो यदुवंशियो के नायक थे। गीता के रचयिता ने ब्राह्मण-धर्म के प्रचार की खातिर अपने को गुमनाम रखते हुए इतने श्रमसाध्य लेखन का श्रेय वेदव्यास को दे दिया है। गीता का यह गुमनाम रचयिता कृष्ण का इस्तेमाल ब्राह्मण-धर्म के प्रचार के लिए करता है। कृष्ण सधी हुई संस्कृत बोलते थे क्या? सूरदास के कृष्ण ब्रजभाषा बोलते हैं। ऐसा नहीं है कि कृष्ण ब्रजभाषा बोलते थे। वह तो कवि की भाषा है। गीता की भाषा क्लासिकल संस्कृत है, गुप्तकाल के कवियों की भाषा। इसीलिए डीडी कोसांबी ने लिखा है कि गीता की संस्क