मोहेंजोदारो फिल्म के कुछ अनैतिहासिक संदर्भ
अशुतोष गोवारिकर ने २०१६ में मोहेंजोदारो फिल्म बनाई थी। इस फिल्म के नायक शरमन को गांव का दिखाया हैं और व्हिलन "महम" को शहर का शासक दिखाया हैं। शरमन को धोती में और महम को महिषासुर की वेशभूषा में दिखाया हैं। शरमन महम की सत्ता को नष्ट करता हैं। ‘फिल्म के सभी कलाकार गोरे दिखाए गये हैं, जबकि उस काल में सांवले व काले लोगों के होने का ऐतिहासिक प्रमाण है।’
डॉ. नारायण सिंह नेताम लिखते हैं – ‘फिल्म के निर्देशक के इस कृत्य को अंतरराष्ट्रीय महत्व की चीज के साथ छेड़छाड़ की श्रेणी में देखा जाना चाहिए और इसके खिलाफ देशद्रोह के आरोप में मुकदमा करना चाहिए।
फिल्म मोहेंजो-दारो में आशुतोष गोविरकर ने आर्यों को सिंधु सभ्यता का वासी बताया है और आर्य नायक शरमन (ऋतिक रोशन) द्वारा खलनायक महम (कबीर बेदी, जो महिषासुर के लुक में हैं) और उसकी सत्ता का नाश दिखाया गया है। मोहेंजो-दारो के जारी ट्रेलर में शरमन का महम की बेटी चानी (पूजा हेगड़े) से प्यार दर्शाया गया है।
पंकज ध्रुव भी फिल्म के ऐतिहासिक संदर्भ पर सवाल उठाते हुए कहते हैं-‘फिल्म के कलाकार गोरे दिखाए गये हैं, जबकि उस काल में सांवले व काले लोगों के होने का ऐतिहासिक प्रमाण है।’ पहनावे पर भी सवाल उठाते हुए कहते हैं कि फिल्म में अभिनेत्री को सिले गये डिजाइनदार कपड़ों में दिखाया गया है, जबकि इतिहास कहता है कि उस समय स्त्री व पुरुष एक ही तरह के कपड़े पहनते थे, वह भी बिना सिले हुए। शरीर पर एक ही कपड़ा हुआ करता था जो बिना सिला हुआ होता था और शरीर के उपरी हिस्से में कपड़े नहीं होते थे। महिलाएं शरीर के उपरी हिस्से को सिर्फ गहनों से ढकी होती थी।
दुनिया के प्राचीनतम सभ्यता के इतिहास की जिस गुत्थी को सुलझाने में एक सदी से स्कॉलर लोग लगे हैं उसे एक फिल्म ने सुलझा दिया है। 12 अगस्त को रिलीज होने जा रही फिल्म ‘मोहेंजो दारो’ का दावा है कि हड़प्पा सभ्यता के रक्षक आर्य हैं। फिल्म में अनार्यों को लोभ-लूट में संलग्न दिखाते हुए उन्हें खलनायक बताया गया है, जिससे आर्य नायक लड़ता है क्योंकि वह ‘सेवा’ करने के लिए ‘मोहेंजो दारो’ आया है। यह फिल्म उस धारणा का जवाब है, जिसके अनुसार मुअनजोदड़ो आर्यों के हमले से नष्ट हुआ था।
हालांकि यह धारणा इतिहासकारों के बीच अब लगभग अमान्य हो चुकी है और सर्वसम्मत धारणा यही बन रही है कि हड़प्पा सभ्यता के विनाश का कारण प्राकृतिक आपदा रही होगी।
ट्रेलर का अंत खलनायक महम (कबीर बेदी) के इस संवाद के साथ होता है कि ‘क्या अंतर है तुझमें और मुझमे?’ नायक सरमन जवाब देता है, ‘तुझे ‘मोहेंजो दारो’ पर राज करना है और मुझे सेवा।’ फिल्म की कहानी जो कुछ भी हो पर ट्रेलर के अनुसार इसका सार यही है कि आर्य लोग 2600 ईसा पूर्व मुअनजोदड़ो आए, रक्षक बनकर सेवा करने। इस प्रकार ‘मोहेंजो दारो’ तथ्यों से परे तोड़ी-मरोड़ी गई हिंदूत्ववादी थ्योरी बनी फिल्म है जिसके द्वारा फिल्मकार न सिर्फ देश के इतिहास को विकृत करता है बल्कि वह आदिवासी समाज और संस्कृति का भी संहार करता है। फिल्म में आर्यों का गुणगान और आदिवासियों व मूलवासियों को खलनायक के रूप में चित्रित करते हुए फिल्मकार स्थापित करता है कि आर्य ही इस भारतीय भूमि के महान रक्षक हैं।
गोवारिकर ऐसा फतवा इसलिए भी दे रहे हैं क्योंकी ‘मोहें जोदारो’ उन दो हिंदुत्ववादी बौद्धिकों – अमरीकी इंजीनियर एन.एस. राजाराम और प्राचीन पुरालिपिवेत्ता नटवर झा- की नवीनतम अवधारणा पर आधारित है, जिसे एक दशक पहले दुनिया के स्कॉलरों ने खारिज कर दिया था। हड़प्पा आर्यों की सभ्यता थी इसे बताने के लिए राजाराम और झा दोनों ने थ्योरी दी थी कि ‘मुअनजोदडो’ में घोड़े थे और उसके निवासियों की भाषा उत्तर वैदिक संस्कृत थी।
अपनी इस झूठी अवधारणा के प्रमाण में दोनों हिंदूवादियों ने अपनी पुस्तक ‘दि डिसाईफर्ड इंडस स्क्रिप्ट: मेथडालॉजी, रिडिंग्स, इंटरप्रेटेशंस’ (2000) में हड़प्पा की खुदाई में, मिली उस सील (मैके 453) को प्रस्तुत किया है, जिसमें एक घोड़े की आकृति बनी हुई है। इतिहासकारों का वर्ग ‘मैके 453’ में चित्रित आकृति को निर्विववाद रूप से ‘एक सींग वाला बैल’ की आकृति मानते रहे हैं। इसलिए जैसे ही राजाराम और झा ने उसे घोड़ा बताया, दुनिया भर के इतिहासकारों ने इसका विरोध किया। हावर्ड विश्वविद्यालय के माइकेल वितलेज और स्टीव फार्मर ने सिद्ध किया कि दोनों हिंदूवादी बौद्धिकों ने ‘मूल चित्र में कंप्यूटर से छेड़छाड़ कर बैल को घोड़ा बना दिया है।’
लेखक-निर्देशक का दावा है कि उनकी फिल्म 2016 ईसा पूर्व की हड़प्पा सभ्यता को दर्शाती है और इसके लिए उन्होंने कई सालों तक शोध किया। परंतु फिल्म का ट्रेलर बताता है कि गोवारिकर को इतिहास की कोई समझ नहीं है। वेशभूषा, रूप-सज्जा, कला-स्थापत्य, भाषा, संगीत, जीवनशैली सबकुछ मध्यकालीन प्रतीत होता है। पात्र संस्कृत और संस्कृतनिष्ठ हिंदी बोलते हैं। फिल्म की भाषा वर्तमान मांग के अनुसार हिंदी हो सकती है, परंतु संस्कृत क्यों? यहां तक कि कलाकार भी हड़प्पा के स्वदेशी निवासी नहीं दिखते हैं। सब के सब रोमन-ग्रीक-आर्य सौंदर्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। नायक भी नीली आंखों वाला और खलनायक की आंखें भी नीली। गेहुआं, सांवला, काला तो कोई है ही नहीं फिल्म में।
हां, खलनायक आदिवासी-मूलवासी ही है, इसे बताते वक्त गोवारिकर महोदय बहुत सचेत हैं। खलनायक महम (कबीर बेदी) का गेटअप मिथकीय चरित्र महिषासुर जैसा है। स्पष्ट है कि गोवारिकर दुर्गा-महिषासुर की उसी नस्लीय कथा को फिल्म के जरिए पेश कर रहे हैं जिसको आज देश का आदिवासी-मूलवासी तबका खारिज कर चुका है।
इसी अंधवादी राष्ट्रवाद की लाइन पर गोवाकरकर ने ‘स्वदेश’ भी बनाई जिसका नायक ‘मोहन भार्गव’ है। प्रवासी मोहन भार्गव भारतीय ‘देशप्रेम’ से अभिभूत हो भारत का कायाकल्प करना चाहता है। यह मोहन भार्गव यानी कि मोहन भार्गव और कोई नहीं आशुतोष गोवारिकर ही हैं, और उनकी फिल्म ‘मोहें जोदारो’ इसकी खुली घोषणा है।
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