भारत के चार अशोक




अशोक महान पूरा नाम देवानांप्रिय अशोकवर्धन मौर्य (राजा प्रियदर्शी देवताओं का प्रिय)। पिता का नाम बिंदुसार। दादा का नाम चंद्रगुप्त मौर्य। माता का नाम सुभद्रांगी। पत्नियों का नाम देवी (वेदिस-महादेवी शाक्यकुमारी), कारुवाकी (द्वितीय देवी तीवलमाता), असंधिमित्रा (अग्रमहिषी), पद्मावती और तिष्यरक्षित। पुत्रों का नाम- देवी से पुत्र महेन्द्र, पुत्री संघमित्रा और पुत्री चारुमती, कारुवाकी से पुत्र तीवर, पद्मावती से पुत्र कुणाल (धर्मविवर्धन) और भी कई पुत्रों का उल्लेख है। धर्म- हिन्दू और बौद्ध। राजधानी  गिरिव्रज या राजगीर

सम्राट अशोक का नाम संसार के महानतम व्यक्तियों में गिना जाता है। ईरान से लेकर बर्मा तक अशोक का साम्राज्य था। अंत में कलिंग के युद्ध ने अशोक को धर्म की ओर मोड़ दिया। अशोक ने जहां-जहां भी अपना साम्राज्य स्थापित किया, वहां-वहां अशोक स्तंभ बनवाए। उनके हजारों स्तंभों को मध्यकाल के मुस्लिमों ने ध्वस्त कर दिया।

अशोक के समय मौर्य राज्य उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर, कर्नाटक तक तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में अफगानिस्तान तक पहुंच गया था। यह उस समय तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य था।

अशोक महान ने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफगानिस्तान, पश्चिम एशिया, मिस्र तथा यूनान में भी करवाया। बिंदुसार की 16 पटरानियों और 101 पुत्रों का उल्लेख है। उनमें से सुसीम अशोक का सबसे बड़ा भाई था। तिष्य अशोक का सहोदर भाई और सबसे छोटा था। भाइयों के साथ गृहयुद्ध के बाद अशोक को राजगद्दी मिली।

कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार तथा विजित देश की जनता के कष्ट ने अशोक की अंतरात्मा को झकझोर दिया। सबसे अंत में अशोक ने कलिंगवासियों पर आक्रमण किया और उन्हें पूरी तरह कुचलकर रख दिया। मौर्य सम्राट के शब्दों में, 'इस लड़ाई के कारण 1,50,000 आदमी विस्थापित हो गए, 1,00,000 व्यक्ति मारे गए और इससे कई गुना नष्ट हो गए...'। युद्ध की विनाशलीला ने सम्राट को शोकाकुल बना दिया और वह प्रायश्चित करने के प्रयत्न में बौद्ध विचारधारा की ओर आकर्षित हुआ।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने पूर्वजों की तरह अशोक भी वैदिक धर्म का अनुयायी था। कल्हण की 'राजतरंगिणी' के अनुसार अशोक के इष्टदेव शिव थे, लेकिन अशोक युद्ध के बाद अब शांति और मोक्ष चाहते थे और उस काल में बौद्ध धर्म अपने चरम पर था।

सभी बौद्ध ग्रंथ अशोक को बौद्ध धर्म का अनुयायी बताते हैं। अशोक के बौद्ध होने के सबल प्रमाण उसके अभिलेख हैं। राज्याभिषेक से संबद्ध लघु शिलालेख में अशोक ने अपने को 'बुद्धशाक्य' कहा है।
भाब्रु लघु शिलालेख में अशोक त्रिरत्न- बुद्ध, धम्म और संघ में विश्वास करने के लिए कहता है और भिक्षु तथा भिक्षुणियों से कुछ बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन तथा श्रवण करने के लिए कहता है। लघु शिलालेख से यह भी पता चलता है कि राज्याभिषेक के 10 वें वर्ष में अशोक ने बोधगया की यात्रा की, 12 वें वर्ष वह निगालि सागर गया और कोनगमन बुद्ध के स्तूप के आकार को दुगना किया। महावंश तथा दीपवंश के अनुसार उसने तृतीय बौद्ध संगीति (सभा) बुलाई और मोग्गलिपुत्त तिस्स की सहायता से संघ में अनुशासन और एकता लाने का सफल प्रयास किया।
भारत के चार अशोक:
पहला अशोक: हिन्दू पुराणों के अनुसार मौर्य वंश का तीसरा राजा अशोकवर्धन था, जो चंद्रगुप्त मौर्य का पौत्र और बिंदुसार का पुत्र था। इसी अशोक को महान सम्राट अशोक कहा गया था और इसी ने अशोक स्तंभ बनवाए हैI आज भी विश्व में भारत सम्राट अशोक का भारत कहलाता  है I 
दूसरा अशोक: कल्हण की 'राजतरंगिणी' के अनुसार कश्मीर के राजवंशों की लिस्ट में 48 वें राजा का नाम अशोक था, जो कि सम्राट कनिष्क से तीन पीढ़ी पहले था। वह कश्मीर के गोनंद राजवंश का राजा था। इस राजा को धर्माशोक भी कहते थे।
तीसरा अशोक : गुप्त वंश के दूसरे राजा समुद्रगुप्त का उपनाम अशोकादित्य था। समुद्रगुप्त को अनेक स्थानों पर अशोक ही कहा गया जिसके चलते भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। समुद्रगुप्त बड़ा ही साहसी और बुद्धिमान राजा था। उसने संपूर्ण भारतवर्ष में बड़े व्यापक स्तर पर विजयी अभियान चलाए थे।
चौथा अशोक : पुराणों में शिशुनाग वंश के दूसरे राजा का नाम भी अशोक था। वह शिशुनाग का पुत्र था। उसका काला रंग होने के कारण उसे 'काकवर्णा' कहते थे, हालांकि उसे कालाशोक नाम से भी पुकारा जाता था।
बौद्ध ग्रंथों में यद्यपि महान सम्राट अशोक के संबंध में बड़े विस्तार से उल्लेख मिलता है, लेकिन उनके वर्णन भी एक-दूसरे से भिन्न हैं। माना जाता है कि लेखकों ने अशोकादित्य (समुद्रगुप्त) और गोनंदी अशोक (कश्मीर का राजा) दोनों को मिलाकर एक चक्रवर्ती अशोक की कल्पना कर ली है।
इस स्थिति में यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल है कि बौद्ध धर्म का प्रचारक देवानांप्रिय अशोक कौन था। सम्राट अशोक को देवानांप्रिय भी कहा जाता था इसीलिए ज्यातातर विद्वानों ने मान लिया कि सम्राट अशोक का काल (269-232) ईस्वी पूर्व गद्दी पर बैठा था, जबकि यह गलत है।

अशोक सीरिया के राजा 'एण्टियोकस द्वितीय' और कुछ अन्य यवन राजाओं का समसामयिक था जिनका उल्लेख 'शिलालेख संख्या 8' में है। इससे विदित होता है कि अशोक ने ईसा पूर्व 3री शताब्दी के उत्तरार्ध में राज्य किया, किंतु उसके राज्याभिषेक की सही तारीख़ का पता नहीं चलता है। अशोक ने 40 वर्ष राज्य किया इसलिए राज्याभिषेक के समय वह युवक ही रहा होगा।
चीनी विवरण के आधार पर अशोक का काल 850 ईसा पूर्व, सीलोनी विवरण के आधार पर 315 ईसा पूर्व और राजतरंगिणी के अनुसार 1260 ईसा पूर्व।
पौराणिक कालगणना के अनुसार अशोक के राज्य के लिए निकाले गए 1472 से 1436 ईसा पूर्व के काल में और राजतरंगिणी के आधार पर धर्माशोक के लिए निकले राज्यकाल 1448 से 1400 ईसा पूर्व में कुछ-कुछ समानता है जबकि भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखने वाले इतिहासकारों द्वारा निकाले गए 265 ईसा पूर्व के काल से कोई समानता ही नहीं है।
उक्त के आधार पर कहा जा सकता है कि वर्तमान इतिहासकारों द्वारा अशोक के संबंध में निर्धारित काल निर्णय बहुत ही उलझा और अपुष्ट है जबकि भारत पौराणिक आधार पर कालगणना करने वालों और इतिहासकारों के बीच लगभग 1200 वर्ष का अंतर आ जाता है।
चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक और कनिष्क की जोन्स आदि पाश्चात्य विद्वानों द्वारा निर्धारित तिथियों के संदर्भ में एबी त्यागराज अय्यर की 'इंडियन आर्किटेक्चर' का निम्नलिखित उद्धरण भी ध्यान देने योग्य है-
'एथेंस में कुछ समय पूर्व एक समाधि मिली थी, उस पर लिखा था कि- 'यहां बौधगया के एक श्रवणाचार्य लेटे हुए हैं। एक शाक्य मुनि को उनके यूनानी शिष्य द्वारा ग्रीक देश ले जाया गया था। समाधि में स्थित शाक्य मुनि की मृत्यु 1000 ईसा पूर्व अंकित है। यदि शाक्य साधु को 1000 ईसा पूर्व के आसपास यूनान ले जाया गया था तो कनिष्क की तिथि कम से कम 1100 ईसा पूर्व और अशोक की 1250 ईसा पूर्व और चंद्रगुप्त मौर्य की 1300 ईसा पूर्व होनी चाहिए और इस मान से भगवान बुद्ध उनके भी पूर्व हुए थे। यदि यह मान लिया जाए तो संपूर्ण इतिहास ही बदल जाएगा। यूनानी साहित्य का सेड्रोकोट्टस चंद्रगुप्त मौर्य सेल्यूकस निकेटर का समकालीन था जिसने 303 ईसा पूर्व में भारत पर आक्रमण किया था, एकदम निराधार और अनर्गल है।' (दि प्लॉट इन इंडियन क्रोनोलॉजी पृ. 9)I वो गुप्ता साम्राज्य का चंद्रगुप्त थाI
अंग्रेज काल में नए सिरे से लिखे गए भारतीय इतिहास के कारण ही यह भ्रम की स्थिति उत्पन्न हई है कि भारतीय इतिहास में ठीक-ठीक तिथि निर्धारण नहीं है। भारत में अब तक जो भी सरकार सत्ता में रही उसने भी इसकी कभी चिंता नहीं की कि भारत के इतिहास को खोजा जाए। ज्यादातर भारतीय इतिहासकारों ने विदेशी इतिहासकारों का अनुसरण ही किया है।
“Without an accurate history, Hindustan cannot develop on its correct identity. And without a clearly defined identity, Indians will continue to flounder. De- falsification of Indian history is the first step for our renaissance”.
Vinaykumar V.Madane-Patil



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