धनगर समाज की सिद्ध परंपरा








वैदिक ऋषि परंपरा, जैन समाज की मुनी परंपरा और धनगर समाज की सिद्ध परंपरा ईस देश में लाखों साल से चल रही हैI
वर्तमान भारतीय धर्म और संस्कृति का अधिकांश हिस्सा सिद्ध लोगों के द्वारा निर्मित है। सामान्य पालतु पशु, यातायात, वस्त्र तथा आभूषण, भवन निर्माण कला, ईटों का प्रयोग और शहरों की रचना आदि इन्हीं लोगों द्वारा प्रचलित किए गए हैं। भारतीय लिपि और खगोलशास्त्र में भी इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
सांस्कृतिक क्षेत्र में भी इसी प्रजाति ने भारत को अनेक बातें दी हैं। पान-सुपारी का व्यवहार तथा महोत्सव में सिन्दूर और हल्दी का उपयोग इसी प्रजाति से किया गया है। पुनर्जन्मका विचार, ब्रह्माण्ड और सृष्टि की उत्पत्ति सम्बन्धी कई दन्तकथाएं, पत्थरको देवता बनाकर पूजना, नाग, मगर, बन्दर आदि पशुओं की पूजा, वस्तुओं के वर्जन का विचार आदि सब आदि द्राविड़ों की देन हैं। चन्द्रमा के हिसाब से तिथि का परिगणन भी इसी सभ्यता की देन है।
भारतीय संस्कृति को इनकी देन बहुत अधिक है। मिट्टी के बर्तन बनाना, तीर कमान चलाना, देशी नावें बनाना, मोर, घोड़े, टट्टू आदि पशुओं को पालना,गन्ने के रस से शक्कर बनाना, कौड़ी के अनुसार प्रत्येक वस्तु को बीस की संख्या से गिनना, विवाह आदि अवसर पर कंकुम और हल्दी का प्रयोगकरना भी इन्होंने भारत को दिया है। पाषाण युग की स्मृति को बनाए रखने के लिए पत्थर को देवता मानकर उनकी पूजा करना, उसे सिन्दूर और चन्दन लगाना, उसके सम्मुख धूप-दीप जलाना, घंटा-घड़ियाल बजाना, उसके समक्ष नाच-गान करना, मूर्ति को भोग लगाना और उसके ऊपर चढ़ेभोग को प्रसाद के रूप में बांटना। ये सभी भारत को इन्हीं लोगों की देन है।
इनके द्वारा शिवलिंग की पूजा भी आरम्भ हो गई। योग क्रियाएं, दवाइयों का उपयोग, नगर
निर्माण की सभ्यता, उच्च श्रेणीकी खेती करने के ढंग, सुधरे ढंग की नावें, युद्ध में प्रवीणता, वस्त्र बुनना एवं कातना, औजारों का निपुणता से प्रयोग, सर्प और पशुओं एवं वृक्षोंकी आत्माओं की पूजा, मातृ शक्ति का आदर, विवाह के रीति-रिवाज भी इन्हीं लोगों की देन हैI
क्या सचमुच आर्यों ने कृष्णवर्ण के लोगों को उत्तर भारत से दक्षिण की ओर खदेड़ दिया था?
हमे इतिहास में ये सिखाया जा रहा है कि पश्चिम यूरेशिया की ओर से आये गोरे रंग के आर्यों ने भारत पर आक्रमण करके उत्तर भारत की काले रंग की द्रविड़(दक्षिण एशियाई/South Asian/Proto Asian) जाति को दक्षिण की ओर खदेड़ दिया थाI लेकिन ये बिल्कुल गलत विचार हैI बहुत सारे विद्वान इस विचार का समर्थन करते हैंI खुद को आर्य समझने वाले लोगों ने इस विचार का समर्थन करके अपनी श्रेष्ठता प्रस्थापित करने के लिये भारत की बहुजन जाति का आत्मसन्मान और आत्मविश्वास कम किया हैI बहुजन जाति के विद्वान भी इस विचार का समर्थन करके लोगों को मानसिक गुलाम बना रहे हैँI
भारत पर सिथियन/ शक आक्रमण:
यह सच है कि भारत पर सिथियन/ शक(पश्चिमी क्षत्रप,खरात/क्षहरात, हूण, हूणमाने, कुषाण इत्यादि) आक्रमण हुए थेI इन लोगों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन और युद्ध करना थाI ये सभी नागवंशी और यदुवंशी थेI ये बहुत ही आक्रामक लोग थेI ये लोग आधुनिक शस्त्रों से युक्त थेI भारत में सातवाहन साम्राज्य ने इनका दमके मुकाबला कियाI पर इनकी भारी संख्या ने सातवाहन साम्राज्य को उखाड़ दियाI सातवाहन सेंगर- औंड्र वंश के अहीर थेI
सबसे पहले सिथियन वंश के मौर्य और सिद् वंश ने भारत में साम्राज्य स्थापित किएI ये लोग मूल दक्षिण एशियाई(Proto Asian/South Asian) ही थेI भारत से ही ये लोग पश्चिम यूरेशिया गये थेI
जब आर्य उत्तर ध्रुव से पश्चिम यूरेशिया पहुंचे तब ये लोग पश्चिम यूरेशिया पर राज्य करते थेI उन्होंने आर्य महिलाओं (पश्चिम यूरेशियन महिलाओं/West Eurasian females) से शादी की और आर्यों की वैदिक सभ्यता का स्विकार कियाI पश्चिम यूरेशिया मे इन्होने शक्तिशाली वैदिक हट्टी साम्राज्य की स्थापना कीI पश्चिम यूरेशिया मे ये लोग हट्टी, पाला गुर्जर, अभिरा/अहीर इत्यादि नामों से जाने जाते थेI उस समय ये लोग वैदिक क्षत्रिय(आर्य क्षत्रिय) थेI
जब ये लोग भारत लौट आये तब यूरेशियन आर्य लोग भी इनके साथ धर्म रक्षा के कारण भारत आयेI यूरेशियन आर्य लोगों ने उस समय सबसे क्रूर असीरियन लोगों से धर्म की रक्षा करने के लिये दक्षिण एशियाई जाति का आश्रय लियाI यूरेशियन आर्य इनके पुरोहित थेI इनमे से भी पुरोहित निर्माण हो गये हैंI आज के पंजाब में ये लोग भारी संख्या में बस गयेI उत्तर भारत की लोगों में यूरेशियन आर्य और दक्षिण एशियाई दोनों तत्व पाये जाते हैI
प्राचीन मेसोपोटामिया, सुमेरियन ,सिंधु घाटी सभ्यता इत्यादि जैसी विकसित और नागरी सभ्यता और पश्चिम यूरेशिया में हट्टी(Hatti/Hittite) और भारत में मौर्य, सातवाहन, गुर्जर प्रतिहार ,राष्ट्रकुट, विजयनगर इत्यादि बड़े बड़े साम्राज्य के निर्माता दक्षिण एशियाई धनगर(Proto Asian/South Asian) ही हैI आजकी प्रगत नगर रचना की संकल्पना विश्व को इन्ही की देन हैI
अभीर – कालचुर्य (कलचूरी) युग:
कालचुर्य कुलदेवी माँ महामाया तथा इष्ट देवता हाटकेश्वर महादेव की जय हो!
प्राचीन मेसोपोटेमिया (सुरप्रदेश/सुमेरिया/सिरिया) के अभीर या सुराभीर नाग की ओर से विश्व को कृषिशास्त्र, गोवंशपालन या पशुपालन आधारित अर्थतंत्र, भाषा लेखन लिपि, चित्र व मूर्तिकला, स्थापत्य कला (नगर शैली), नगर रचना (उन्ही के नाम से नगर शब्द), खाध्यपदार्थो मे खमीरिकरण या किण्वन (fermentation) प्रक्रिया की तकनीक (अचार, आटा/ब्रेड/नान, घोल/batter, सिरका, सुरा) इत्यादि जैसी सदैव उपयोगी भेट मिली है जो वर्तमान युग मे भी मानव जीवन और अर्थतन्त्र की द्रष्टि से अति महत्वपूर्ण है।
सोलोमन, हरप्पन, कुशाण से लेकर के कालचुर्य तक सभी अभीर राज्यो मे महारुद्र भगवान शिव, गोवंश (गाय, नंदी/वृषभ), देवी महामाया, धार्मिक स्थापत्य, सांप्रदायिक सदभावना, स्त्री दाक्षिण्य, लोकोपयोगी कार्य, लिपिज्ञान संशोधन, मुद्रा, सिक्के इत्यादि की महत्ता समानरूप से द्रष्टिगोचर होती है। उल्लेखनीय है की कालचुर्य इष्ट देवता महारुद्र भगवान शिव व ब्रह्मा विष्णु महेश के त्रिदेव स्वरूप तथा कुल देवी माँ महामाया (सरस्वती, लक्ष्मी व महिसासुरमर्दिनी का त्रिदेवी स्वरूप) का पूजन करते थे। उनका राज चिन्ह स्वर्ण नंदी (स्वर्ण वृषभ) था।
सिद राजघराणे
सिथियन जमातींतील सिद या राजघराण्याचे दैवत थागिमासाडस (Thagimasida) हे असून त्याचे हीरॉडोटसने पॉसेडॉन(Poseidon. भगवान शिव का एक रुप) या ग्रीक देवतेबरोबर साधर्म्य दर्शविले आहे. त्यांच्या संप्रदायाविषयीची माहिती त्यांच्या राजांच्या थडग्यांवरुन होते. या उत्खनित थडग्यांतून काही धर्मविधिविषयक वस्तू आढळल्या; मात्र उत्खननात त्यांच्या देवतांच्या मूर्ती व मंदिरे आढळली नाहीत.
त्यांच्या और्ध्वदेहिक कर्मकांडाविषयीची माहिती त्यांच्या कबरस्थानातील पुरातत्त्वीय पुराव्यावरुन ज्ञात होते. मेलेल्या माणसाचे शव संलेपन करुन त्याची मिरवणूक काढीत असत व चाळीस दिवसानंतर त्याचे दफन करीत.
सिथियन हे मूलतः भटके लोक होते. मात्र हे लोक काटक, अंगापिंडाने मजबूत व लढवय्ये असल्याचा उल्लेख आढळतो. औषधी युक्त शेळया मेंढ्याच्या दुधातुन या लोकांत काटक निरोगीपणा आला.

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