विश्व की सभ्यता में द्रविड़, धनगर और यूरेशियन आर्यों का योगदान






द्रविड़: अभी कुछ साल पहले विद्वानों का मानना था की विश्व की सभी सभ्यता का निर्माण आर्यों द्वारा ही किया गाया हैI अभी भी बहुत सारे लोगों का यही वहम हैंI लेकिन आधुनिक संशोधन के बाद यह विचार गलत साबित हुआ हैंIभारतीय संस्कृति विकास में द्रविड़ लोगों का भी अहम् हिस्सा हैI भारतीय संस्कृति का विकास आर्य और द्रविड़ लोगों का संपर्क और संस्कृति का आपस में विनिमय से हो गया है ये अभी सर्वमान्य हैI द्रविड़ द्रविड़-भाषा परिवार के सदस्य हैंI
द्रविड़ अश्मयुग(paleolithic age) के लोग हैंI पत्थर का उपयोग करके स्थापत्य कला, भवन निर्माण, किले एवं महलों की निर्मिती , मंदिर निर्माण,शिल्पकला,चित्र व मूर्तिकला, ईटों का प्रयोग और शहरों की रचना इन्हीं लोगों की देन हैI आज भी दक्षिण भारत की वडार जाति पत्थर से जुड़े काम करती हैI
स्थापत्य कला से संबंधित गणित और गणित का विकास इनके द्वारा ही किया गया हैI पत्थर पर भाषा लिपि का निर्माण सर्वप्रथम द्रविड़ द्रविड़ लोगों ने किया हैंI सिंधु घाटी सभ्यता से प्राप्त मुहर की चित्र लिपि तमिल भाषा से मिलती है ऐसा कुछ विद्वानों का मानना हैI
पाषाण युग की स्मृति को बनाए रखने के लिए पत्थर को देवता मानकर उनकी पूजा करना इनके द्वारा प्रचलित किया गया हैI
भारतीय संस्कृति को इनकी देन बहुत है। मिट्टी के बर्तन बनाना, सुधरे ढंग की नावें, वस्त्र बुनना एवं कातना, औजारों का निपुणता से प्रयोग,सर्प और पशुओं एवं वृक्षोंकी की पूजा(निसर्ग पूजा) आदि सब आदि द्राविड़ों की देन हैं।
धनगर: धनगर भारत की अतिप्राचीन पशुपालक जाती हैI धनगर इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार के सदस्य हैंI प्राचीन काल से धनगर पशुपालक और योध्दा हैI वैवस्वत मनु द्रविड़ देश के पहले राजा थेI हट्टी- मराठी, गुर्जर- गुजराथी, पाल- पाली, अहिर- अहिराणी इत्यादि प्राकृत भाषाएँ इन्हीं लोगों की देन हैI पाली प्राचीन हिंदी हैं।
धनगर समाज की अपनी खुद की प्राचीन सिद्ध परंपरा और पीले रंग का ध्वज हैI समाज के पुरोहित को सिद्ध कहा जाता हैI वैदिक पुरोहित होतार सिद्ध का वैदिक रूप हैI वैदिक अग्निदेव का वाहन मेष हैI धनगर समाज की देवता पत्थर की बनी होती हैI उसे सिन्दूर लगाया जाता हैI भगवान की मंदिर में पूजा करने की परंपरा धनगरों की हैI भगवान की मंदिर में पूजा करना वैदिक परंपरा नहीं हैI
वर्तमान भारतीय धर्म और संस्कृति का अधिकांश हिस्सा धनगर लोगों के द्वारा निर्मित है। सामान्य पालतु पशु, यातायात(मराठी:दळणवळण/Transportation), वस्त्र तथा आभूषण आदि इन्हीं लोगों द्वारा प्रचलित किए गए हैं।
सांस्कृतिक क्षेत्र में भी इसी प्रजाति ने भारत को अनेक बातें दी हैं। पान-सुपारी का व्यवहार तथा महोत्सव में सिन्दूर और हल्दी का उपयोग इसी प्रजाति से किया गया है। पत्थर को देवता बनाकर पूजना, नाग आदि पशुओं की पूजा, वस्तुओं के वर्जन का विचार आदि सब धनगरों की देन हैं। चन्द्रमा के हिसाब से तिथि का परिगणन भी इसी सभ्यता की देन है।
भारतीय संस्कृति को इनकी देन बहुत अधिक है। मेष,मोर, घोड़े, टट्टू आदि पशुओं को पालना,गन्ने के रस से शक्कर बनाना, विवाह आदि अवसर पर कंकुम और हल्दी का प्रयोग करना भी इन्होंने भारत को दिया है। पत्थर को देवता मानकर उनकी पूजा करना, उसे सिन्दूर और चन्दन लगाना, उसके सम्मुख धूप-दीप जलाना, घंटा-घड़ियाल बजाना, उसके समक्ष नाच-गान करना, मूर्ति को भोग लगाना और उसके ऊपर चढ़ेभोग को प्रसाद के रूप में बांटना। ये सभी भारत को इन्हीं लोगों की देन है।
इनके द्वारा शिवलिंग की पूजा भी आरम्भ हो गई। योग क्रियाएं, दवाइयों का उपयोग,
उच्च श्रेणी की खेती करने के ढंग, युद्ध में प्रवीणता, सर्प और पशुओं एवं वृक्षों की आत्माओं की पूजा, मातृ शक्ति का आदर, विवाह के रीति-रिवाज भी इन्हीं लोगों की देन हैI
अभीर – कालचुर्य (कलचूरी) युग।
कालचुर्य कुलदेवी माँ महामाया तथा इष्ट देवता हाटकेश्वर महादेव की जय हो!
प्राचीन मेसोपोटेमिया (सुरप्रदेश/सुमेरिया/सिरिया) के अभीर/अहिर या सुराभीर नाग की ओर से विश्व को कृषिशास्त्र, गोवंशपालन या पशुपालन आधारित अर्थतंत्र, नगर रचना (उन्ही के नाम से नागर शैली शब्द), खगोलशास्त्र, खाध्यपदार्थो मे खमीरिकरण या किण्वन (fermentation) प्रक्रिया की तकनीक (अचार, आटा/ब्रेड/नान, घोल/batter, सिरका, सुरा) इत्यादि जैसी सदैव उपयोगी भेट मिली है जो वर्तमान युग मे भी मानव जीवन और अर्थतन्त्र की द्रष्टि से अति महत्वपूर्ण है।
सोलोमन, हरप्पन, कुशाण से लेकर के कालचुर्य तक सभी अभीर राज्यो मे महारुद्र भगवान शिव, गोवंश (गाय, नंदी/वृषभ), देवी महामाया, धार्मिक स्थापत्य, सांप्रदायिक सदभावना, स्त्री दाक्षिण्य, लोकोपयोगी कार्य, लिपिज्ञान संशोधन, मुद्रा, सिक्के इत्यादि की महत्ता समानरूप से द्रष्टिगोचर होती है। उल्लेखनीय है की कालचुर्य इष्ट देवता महारुद्र भगवान शिव व ब्रह्मा विष्णु महेश के त्रिदेव स्वरूप तथा कुल देवी माँ महामाया (सरस्वती, लक्ष्मी व महिसासुरमर्दिनी का त्रिदेवी स्वरूप) का पूजन करते थे। उनका राज चिन्ह स्वर्ण नंदी (स्वर्ण वृषभ) थाI
यूरेशियन आर्य: आर्य उत्तर ध्रुव से पश्चिम यूरेशिया पहुंचे इसलिए उन्हें यूरेशियन आर्य कहा जाता है। आर्य संस्कृत भाषा बोलने वाले वैदिक पशुपालक लोग थेI उन्होंने भारत में वैदिक सभ्यता का प्रसार कियाI पुनर्जन्म का विचार, ब्रह्माण्ड और सृष्टि की उत्पत्ति सम्बन्धी जानकारी इत्यादि का अभ्यास आर्यों को थाI इंग्लिश और अनेक इंडो-यूरोपीय भाषाएं संस्कृत की देन हैI
आर्यों को स्थापत्य कला, भवन निर्माण, किले एवं महलों की निर्मिती का कौशल्य नही थाI
जब आर्य उत्तर ध्रुव से पश्चिम यूरेशिया पहुंचे तब भारतीय धनगर(दक्षिण एशियाइ पुरुष/South Asian males) पश्चिम एशिया पर राज्य करते थेI उन्होंने आर्य महिलाओं (पश्चिम यूरेशियन महिलाओं/West Eurasian females) से शादी की और आर्यों की वैदिक सभ्यता का स्विकार कियाI
धनगर पीला रंग और वैदिक भगवा रंग मिलकर हिंदू धर्म की निर्मिती हो गई हैI महाराष्ट्र की हटकर धनगर, गुर्जर और कुछ राजपूत जाति के ध्वज मे पीला और भगवा दोनों रंग का समावेश हैI पश्चिम यूरेशिया मे ये लोग हट्टी, पाला गुर्जर, अभिरा/अहीर इत्यादि नामों से जाने जाते थेI उस समय ये लोग वैदिक क्षत्रिय(आर्य क्षत्रिय) थेI
जब ये लोग भारत लौट आये तब यूरेशियन आर्य लोग भी इनके साथ धर्म रक्षा के कारण भारत आयेI यूरेशियन आर्य लोगों ने उस समय सबसे क्रूर असीरियन लोगों से धर्म की रक्षा करने के लिये दक्षिण एशियाई जाति का आश्रय लियाI यूरेशियन आर्य इनके पुरोहित थेI इनमे से भी पुरोहित निर्माण हो गये हैंI आज के पंजाब में ये लोग भारी संख्या में बस गयेI उत्तर भारत की लोगों में यूरेशियन आर्य और दक्षिण एशियाई दोनों तत्व पाये जाते हैI

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