This happens due to learning wrong history
मै एक राजपूत हूँ। पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि आज मेरी पहचान खो गई है।
मैने वो सभी काम किये जो कहते है एक राजपूत को करने चाहिए। फिर भी मेरी पहचान खो गई।
मेरा जन्म आजाद भारत में हुआ था। जब अंग्रेज भारत छोड़कर जा चुके थे। राजा महाराजाओं जागीरदारों के राज छीने जा चुके थे।
जब मै छोटा बच्चा था तो मेरी माँ कहती थी हम राजपूत है, क्षत्रिय की सन्तान है, हमारा रक्त सबसे श्रेष्ठ है। भाई बन्ध कहते हम राजपूत सबसे शक्तिशाली होते है। अन्य जातियों के लोग हमारे सामने कीड़े मकौड़े होते है। बचपन में मुझे पूरा भरोसा हो गया था कि राजपूत ही दुनिया की सबसे बड़ी और ताकतवर कौम है। उसके अलावा कोई और बलिदानी कौम है ही नही।
कुछ समय बाद मुझे गांव के स्कुल में भेज दिया गया। वहाँ का द्रश्य मेरे घर से बहुत अलग था। कक्षा में सदा बामण बनियों के बच्चे पढ़ाई में अव्वल आते थे। खेलकूद में अन्य किसान जातियों के बच्चे बाजी मार जाते थे। स्कुल का मास्टर सदा कहता मेहनत और प्रेक्टिस से ही अव्वल आया जा सकता है। मुझे उसकी बात समझ नही आती। सोचता हम तो जन्म से ही श्रेष्ठ है हमें मेहनत और प्रेक्टिस की क्या जरूरत? हमारे महाराणा प्रताप तो 80 किलो भाला उठा लेते थे। और मुझे अपने पूर्वजो पर बहुत गर्व था।
मुझे स्कुल वालों की और स्कुल वालो को मेरी बात समझ नही आई तो, मैने स्कुल से भागना शुरू कर दिया।
एक दिन गलती से स्कुल मास्टर ने पकड़ लिया और पीट दिया। पीटने का इतना दुःख नही हुआ जितना इस बात का दुःख था कि एक नीच जाति के मास्टर ने पीटा। घर जाकर बात दाता हूकम (पिताजी) को बताई। दाता हुकम का गुस्सा सातवें आसमान पर था। वो तत्काल स्कुल पहुँचे और मास्टर की जम कर धुनाई कर दी। फिर क्या था स्कुल में मेरी धाक जम गई। सब मुझसे डरने लगे। अब मुझे भरोसा हो गया कि राजपूत ही सबसे श्रेष्ठ होते है। मेरे भीतर भी राजे महाराजो का खून दौड़ता है।
जब 16 बरस का हुआ तो घर पर रोज देखता रात को दाता (पिताजी) हूकम रोज दारु की बोतल लेकर बैठ जाते। जब वो दारू पीते थे उस समय सारा घर उनकी सेवा में लग जाता। हम भाई बहन टेबल गिलास लगाते, दौड़ दौड़ कर नमकीन, पापड़ और "ठुम" की सप्लाई करते। खूब पिते, पीकर कभी कभी मेरी माँ बहनो या मेरी ठुकाई करते। गालियां देते और सो जाते। जब तक वो दारू पीकर सो नही जाते घर में एक आतंक का माहौल रहता था। जब कोई उन्हें दारू पीने को मना करता तो कहते -"दारू पीना, मीट खाना तो राजपूत की पहचान है। ये हमारी परम्परा है, देवी देवताओं का प्रसाद है और परम्परा को निभाना तो राजपूत का घर्म है। हमारे यहाँ कोई भी कार्यक्रम दारु के बिना अधूरा था । जन्म, मरण और परण में खूब दारु पी जाती । दारू की महिमा वाले कई गीत, दोहे भी हमारे घर पर सुने जाते थे। उन सभी में दारु पीने को महान काम और शराबी को शूरवीर बताया गया है।मैने उनकी बात मान ली और दारु पीनी शुरू कर दी। कभी यार दोस्तों के साथ पी, कभी अकेले बैठ कर पी, कभी शादी पार्टी में पी। दूसरी जाति के यार दोस्त भी मुझे ही ठेके पर भेजते- तु ठाकुर है तु ही दारु ला सकता है। दारू तो राजपूत की पहचान है। बाकी छुप छुप कर पीते , मै सरे आम पीता।
स्कूल के बाद कालेज पढ़ने शहर आ गया। 12वीं में थर्ड डिवीजन था सो अच्छा कालेज तो नही मिला पर एक कालेज में एडमिशन मिल ही गया। इस कालेज की पढ़ाई का तो पता नही पर इसकी बेहतरीन बात यह थी कि इसमें मेरे जैसे बना लोग बहुत पढ़ते थे। यहां बनाओं के ठाठ देख कर दिल खुश हो गया। पूर्व जागीरदारों और अमीर घरानों के बना ओपन जीप और बुलैट लेकर घूमते थे। कालेज में उनकी धाक जमीं हुई थी। जब भी कालेज चुनाव या आम चुनाव आते मै खूब राजपूत एकता के नारे लगाते। उनकी जीप के पीछे लटक लटक कर दिन रात चुनाव प्रचार करता। साथ ही उन नेताओं के साथ बैठ कर मुफ़्त की दारु और मीट का मज़ा लेता। मैनेभी उन बना लोगों की स्टाइल के कपड़े सिलवाये। साफे बांधे। तलवारे हाथ में लेकर खूब फ़ोटो खिंचवाई। मुझे लगा मेरी पहचान मिल गई। साफा और तलवार ही तो राजपूत की पहचान होती है।बीए पास करने की बाद पिताजी ने पैसे भेजना बन्द कर दिया तो सोचा नोकरी कर ली जाये। अब एक राजपूत होने के नाते मेरे हुनर थे घोडा चलाना, बन्दूक, तलवार चलाना, साफे बांधना और दारु पीना। इसके अलावा कोई और हुनर तो मुझे आता नही था। साथ ही बचपन से ये भी सीखा था कि राजपूत किसी के सामने झुकता नही। अकड़ ही उसकी पहचान होती है। सो नोकरी मिली नही। मिली भी तो इतनी छोटी की उसमें मेरे जैसा राजपूत फिट नही हो सका। बाकि कमी आरक्षण ने और जातिवाद ने पूरी कर दी। धंधा करने को भी अनुभव और पूँजी चाहिये थी। तो मामला कुछ जम नही पाया।तब मैने सोचा की शहर में रहना ठीक नही। शहर के लोग बेईमान होते है। यहाँ के राजपूत भी राजपूत नही लगते। यहाँ नकली असली राजपूत का पता ही नही चलता। दिन रात लोग काम में लगे रहते है। कोई परम्परा रीती रिवाज नहीजानते। तो मै वापस अपने गांव लौट आया।आज मै अपने गांव में ही रहता हूँ। हमारे गांव के ठाकुर साहब का गढ़ अब पुराना खण्डहर होता जा रहा है। जिन गांव वालो की झोपडीयाँ थी वो पक्के घरों में बदलती जा रही है। उस नीचे जाति के मास्टर (जिसकी हमने पिटाई की थी) के दो लडके आरक्षण के दम पर IAS बन गए है।कभी बड़ी बड़ी कारों से गांव आते है।मेरा गुजारा तो खानदानी जमीन की खेती से चल जाता है। बस बेरोजगार बेटे की चिन्ता है।आज दाता होकम की पुरानी कुर्सी पर बैठ कर रोज रात को दारु पीता हूँ और चुपचाप सो जाता हूँ।पर अब सच में लगता है कि मेरी पहचान खो गई है। मैने वो सब किया जो मेरे बड़ो ने कहा। हमेशा उनकी आज्ञा का पालन किया। मैने सभी परम्पराओ का पालन किया जो एक राजपूत को करनी चाहिए। फिर भी मेरी पहचान खो गई। आखिर क्यों अपनी पुरानी अमुक परम्परा है उन्हें रोकना होगा ओर आप सब की एक ही भावना होनी चाहिए तो ईस बात पर जरूर धयान दे.....राजपूत
https://www.facebook.com/vinaykumar.madane/posts/613154478816971?pnref=story
मैने वो सभी काम किये जो कहते है एक राजपूत को करने चाहिए। फिर भी मेरी पहचान खो गई।
मेरा जन्म आजाद भारत में हुआ था। जब अंग्रेज भारत छोड़कर जा चुके थे। राजा महाराजाओं जागीरदारों के राज छीने जा चुके थे।
जब मै छोटा बच्चा था तो मेरी माँ कहती थी हम राजपूत है, क्षत्रिय की सन्तान है, हमारा रक्त सबसे श्रेष्ठ है। भाई बन्ध कहते हम राजपूत सबसे शक्तिशाली होते है। अन्य जातियों के लोग हमारे सामने कीड़े मकौड़े होते है। बचपन में मुझे पूरा भरोसा हो गया था कि राजपूत ही दुनिया की सबसे बड़ी और ताकतवर कौम है। उसके अलावा कोई और बलिदानी कौम है ही नही।
कुछ समय बाद मुझे गांव के स्कुल में भेज दिया गया। वहाँ का द्रश्य मेरे घर से बहुत अलग था। कक्षा में सदा बामण बनियों के बच्चे पढ़ाई में अव्वल आते थे। खेलकूद में अन्य किसान जातियों के बच्चे बाजी मार जाते थे। स्कुल का मास्टर सदा कहता मेहनत और प्रेक्टिस से ही अव्वल आया जा सकता है। मुझे उसकी बात समझ नही आती। सोचता हम तो जन्म से ही श्रेष्ठ है हमें मेहनत और प्रेक्टिस की क्या जरूरत? हमारे महाराणा प्रताप तो 80 किलो भाला उठा लेते थे। और मुझे अपने पूर्वजो पर बहुत गर्व था।
मुझे स्कुल वालों की और स्कुल वालो को मेरी बात समझ नही आई तो, मैने स्कुल से भागना शुरू कर दिया।
एक दिन गलती से स्कुल मास्टर ने पकड़ लिया और पीट दिया। पीटने का इतना दुःख नही हुआ जितना इस बात का दुःख था कि एक नीच जाति के मास्टर ने पीटा। घर जाकर बात दाता हूकम (पिताजी) को बताई। दाता हुकम का गुस्सा सातवें आसमान पर था। वो तत्काल स्कुल पहुँचे और मास्टर की जम कर धुनाई कर दी। फिर क्या था स्कुल में मेरी धाक जम गई। सब मुझसे डरने लगे। अब मुझे भरोसा हो गया कि राजपूत ही सबसे श्रेष्ठ होते है। मेरे भीतर भी राजे महाराजो का खून दौड़ता है।
जब 16 बरस का हुआ तो घर पर रोज देखता रात को दाता (पिताजी) हूकम रोज दारु की बोतल लेकर बैठ जाते। जब वो दारू पीते थे उस समय सारा घर उनकी सेवा में लग जाता। हम भाई बहन टेबल गिलास लगाते, दौड़ दौड़ कर नमकीन, पापड़ और "ठुम" की सप्लाई करते। खूब पिते, पीकर कभी कभी मेरी माँ बहनो या मेरी ठुकाई करते। गालियां देते और सो जाते। जब तक वो दारू पीकर सो नही जाते घर में एक आतंक का माहौल रहता था। जब कोई उन्हें दारू पीने को मना करता तो कहते -"दारू पीना, मीट खाना तो राजपूत की पहचान है। ये हमारी परम्परा है, देवी देवताओं का प्रसाद है और परम्परा को निभाना तो राजपूत का घर्म है। हमारे यहाँ कोई भी कार्यक्रम दारु के बिना अधूरा था । जन्म, मरण और परण में खूब दारु पी जाती । दारू की महिमा वाले कई गीत, दोहे भी हमारे घर पर सुने जाते थे। उन सभी में दारु पीने को महान काम और शराबी को शूरवीर बताया गया है।मैने उनकी बात मान ली और दारु पीनी शुरू कर दी। कभी यार दोस्तों के साथ पी, कभी अकेले बैठ कर पी, कभी शादी पार्टी में पी। दूसरी जाति के यार दोस्त भी मुझे ही ठेके पर भेजते- तु ठाकुर है तु ही दारु ला सकता है। दारू तो राजपूत की पहचान है। बाकी छुप छुप कर पीते , मै सरे आम पीता।
स्कूल के बाद कालेज पढ़ने शहर आ गया। 12वीं में थर्ड डिवीजन था सो अच्छा कालेज तो नही मिला पर एक कालेज में एडमिशन मिल ही गया। इस कालेज की पढ़ाई का तो पता नही पर इसकी बेहतरीन बात यह थी कि इसमें मेरे जैसे बना लोग बहुत पढ़ते थे। यहां बनाओं के ठाठ देख कर दिल खुश हो गया। पूर्व जागीरदारों और अमीर घरानों के बना ओपन जीप और बुलैट लेकर घूमते थे। कालेज में उनकी धाक जमीं हुई थी। जब भी कालेज चुनाव या आम चुनाव आते मै खूब राजपूत एकता के नारे लगाते। उनकी जीप के पीछे लटक लटक कर दिन रात चुनाव प्रचार करता। साथ ही उन नेताओं के साथ बैठ कर मुफ़्त की दारु और मीट का मज़ा लेता। मैनेभी उन बना लोगों की स्टाइल के कपड़े सिलवाये। साफे बांधे। तलवारे हाथ में लेकर खूब फ़ोटो खिंचवाई। मुझे लगा मेरी पहचान मिल गई। साफा और तलवार ही तो राजपूत की पहचान होती है।बीए पास करने की बाद पिताजी ने पैसे भेजना बन्द कर दिया तो सोचा नोकरी कर ली जाये। अब एक राजपूत होने के नाते मेरे हुनर थे घोडा चलाना, बन्दूक, तलवार चलाना, साफे बांधना और दारु पीना। इसके अलावा कोई और हुनर तो मुझे आता नही था। साथ ही बचपन से ये भी सीखा था कि राजपूत किसी के सामने झुकता नही। अकड़ ही उसकी पहचान होती है। सो नोकरी मिली नही। मिली भी तो इतनी छोटी की उसमें मेरे जैसा राजपूत फिट नही हो सका। बाकि कमी आरक्षण ने और जातिवाद ने पूरी कर दी। धंधा करने को भी अनुभव और पूँजी चाहिये थी। तो मामला कुछ जम नही पाया।तब मैने सोचा की शहर में रहना ठीक नही। शहर के लोग बेईमान होते है। यहाँ के राजपूत भी राजपूत नही लगते। यहाँ नकली असली राजपूत का पता ही नही चलता। दिन रात लोग काम में लगे रहते है। कोई परम्परा रीती रिवाज नहीजानते। तो मै वापस अपने गांव लौट आया।आज मै अपने गांव में ही रहता हूँ। हमारे गांव के ठाकुर साहब का गढ़ अब पुराना खण्डहर होता जा रहा है। जिन गांव वालो की झोपडीयाँ थी वो पक्के घरों में बदलती जा रही है। उस नीचे जाति के मास्टर (जिसकी हमने पिटाई की थी) के दो लडके आरक्षण के दम पर IAS बन गए है।कभी बड़ी बड़ी कारों से गांव आते है।मेरा गुजारा तो खानदानी जमीन की खेती से चल जाता है। बस बेरोजगार बेटे की चिन्ता है।आज दाता होकम की पुरानी कुर्सी पर बैठ कर रोज रात को दारु पीता हूँ और चुपचाप सो जाता हूँ।पर अब सच में लगता है कि मेरी पहचान खो गई है। मैने वो सब किया जो मेरे बड़ो ने कहा। हमेशा उनकी आज्ञा का पालन किया। मैने सभी परम्पराओ का पालन किया जो एक राजपूत को करनी चाहिए। फिर भी मेरी पहचान खो गई। आखिर क्यों अपनी पुरानी अमुक परम्परा है उन्हें रोकना होगा ओर आप सब की एक ही भावना होनी चाहिए तो ईस बात पर जरूर धयान दे.....राजपूत
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