अभीर/Ahir– कालचुर्य (कलचूरी) युग। कालचुर्य कुलदेवी माँ महामाया तथा इष्ट देवता हाटकेश्वर महादेव की जय हो!
प्राचीन मेसोपोटेमिया (सुरप्रदेश/सुमेरिया/सिरिया) के अभीर या सुराभीर नाग की ओर से विश्व को कृषिशास्त्र, गोवंशपालन या पशुपालन आधारित अर्थतंत्र, भाषा लेखन लिपि, चित्र व मूर्तिकला, स्थापत्य कला (नगर शैली), नगर रचना (उन्ही के नाम से नगर शब्द), खाध्यपदार्थो मे खमीरिकरण या किण्वन (fermentation) प्रक्रिया की तकनीक (अचार, आटा/ब्रेड/नान, घोल/batter, सिरका, सुरा) इत्यादि जैसी सदैव उपयोगी भेट मिली है जो वर्तमान युग मे भी मानव जीवन और अर्थतन्त्र की द्रष्टि से अति महत्वपूर्ण है।
सोलोमन, हरप्पन, कुशाण से लेकर के कालचुर्य तक सभी अभीर राज्यो मे महारुद्र भगवान शिव, गोवंश (गाय, नंदी/वृषभ), देवी महामाया, धार्मिक स्थापत्य, सांप्रदायिक सदभावना, स्त्री दाक्षिण्य, लोकोपयोगी कार्य, लिपिज्ञान संशोधन, मुद्रा, सिक्के इत्यादि की महत्ता समानरूप से द्रष्टिगोचर होती है। उल्लेखनीय है की कालचुर्य इष्ट देवता महारुद्र भगवान शिव व ब्रह्मा विष्णु महेश के त्रिदेव स्वरूप तथा कुल देवी माँ महामाया (सरस्वती, लक्ष्मी व महिसासुरमर्दिनी का त्रिदेवी स्वरूप) का पूजन करते थे। उनका राज चिन्ह स्वर्ण नंदी (स्वर्ण वृषभ) था।
कला व ज्ञान का सम्मान करने वाले कलचूरी स्वयं भी ज्ञान पिपासु रहे थे। कालचुर्य काल से पूर्व भाषा लेखन के लिए आर्मेईक और कोशट्रू जैसी लिपि से व्युत्पन्न ब्राह्मी लिपि का चलन था। भारतवर्ष मे प्रयोग मे आने वाली सर्व लेखन लिपियो समेत दक्षिण एशिया की लगभग ४० लेखन लिपयो का उद्भव इसी लिपि से हुआ है।
आज भारतीय उपखंड मे सर्वाधिक प्रयोग मे आने वाली देवनागरी लिपि का उद्भव भी कालचुर्य काल मे ही हुआ।
अभीर लाक्षणिक्तानुसार ही सभी कालचुर्य राजाओ ने भी अपने कार्य काल मे विविध चित्र व अंकन वाले सिक्के भी जारी किए जिसे ‘रूपक’ कहा जाता था।
१०वी शताब्दी मे कलचूरी राजा कर्णदेव (कल्याणवर्मन) ने उज्जैन के वराहमिहिर द्वारा रोमक सिद्धांतो के आधार पर लिखी ‘बृहद जातक’ को विस्तृत करते हुए पौलिस, रौमस, वसिष्ठ, यवनाचार्य, बादरायण, शक्ति, अत्री, भारद्वाज, गूदाग्नि, केशव और गार्गी सरीखे धुरंधरों के कार्यो का गहन अध्ययन व संकलन करते हुए ‘सारावली’ ग्रंथ का लेखन किया जो आज भी ज्योतिष शास्त्र मे विश्व के ५ महत्वपूर्ण ग्रंथो मे गिना जाता है (यह जानना भी रोचक होगा की ग्रीस मे सारावली नामक नगर व किला है)। बांधवगढ़ के समीप बामणिया टीले मे कलचूरी काल के कई अवशेष दबे होने की मान्यता है।
आज भारतीय उपखंड मे सर्वाधिक प्रयोग मे आने वाली देवनागरी लिपि का उद्भव भी कालचुर्य काल मे ही हुआ।
अभीर लाक्षणिक्तानुसार ही सभी कालचुर्य राजाओ ने भी अपने कार्य काल मे विविध चित्र व अंकन वाले सिक्के भी जारी किए जिसे ‘रूपक’ कहा जाता था।
१०वी शताब्दी मे कलचूरी राजा कर्णदेव (कल्याणवर्मन) ने उज्जैन के वराहमिहिर द्वारा रोमक सिद्धांतो के आधार पर लिखी ‘बृहद जातक’ को विस्तृत करते हुए पौलिस, रौमस, वसिष्ठ, यवनाचार्य, बादरायण, शक्ति, अत्री, भारद्वाज, गूदाग्नि, केशव और गार्गी सरीखे धुरंधरों के कार्यो का गहन अध्ययन व संकलन करते हुए ‘सारावली’ ग्रंथ का लेखन किया जो आज भी ज्योतिष शास्त्र मे विश्व के ५ महत्वपूर्ण ग्रंथो मे गिना जाता है (यह जानना भी रोचक होगा की ग्रीस मे सारावली नामक नगर व किला है)। बांधवगढ़ के समीप बामणिया टीले मे कलचूरी काल के कई अवशेष दबे होने की मान्यता है।
उस दौर के मध्य भारत मे कदंब व उनके अनुगामी/वंशज चालुक्य, राष्ट्रकूट, कालचुर्य जैसे राजवंशो का आधिपत्य था। दक्षिण मे पल्लवो का आधिपत्य था। यह सभी इंडो आर्यन सिंथियन मूल के थे। कालचुर्यों का नाग व चन्द्र वंश से नाता उनके शाकाद्वीपी मूल का ही द्योतक है।
यह सभी हिन्दू वैदिक संस्कृति आधारित राज्य व्यवस्था वाले राज्य थे।
Abhir is the ancient tribe of cattle herders/Pashupalak.
Abhira is Sanskrit word.Abhira means brave warrior.Other meaning of Abhira is black/naga people.
Ahir is prakrit form of sanskrit Abhira.
There are many vansh/lineage in Abhira/Ahir.
In Dhangars Nagvanshi and Yaduvanshi Ahirs are found.
Hatti /Hatkar sub caste of Dhangars is an aristocratic class of Nagvanshi and Yaduvanshi Ahirs.
There is Ahir Dhangar sub caste of Dhangars.
There are Abhira Brahman also.
यादव और अहीर अलग-अलग कुल हैं
ReplyDeleteयादव-प्राण-कार्ये च शक्राद अभीर-रक्शिणे।
गुरु-मातृ-द्विजानां च पुत्र- दात्रे नमो नमः।।
(Garga Samhita 6:10:16)
Translation: जिन्होंने यादवों की रक्षा की, जिन्होंने राजा इंद्र से अहीरों की भी रक्षा की और अपनी माता, गुरु और ब्राह्मण को उनके खोए हुए बेटों को वापस दिलाया, मैं आपको आदरणीय प्रणाम करता हूँ।
अन्ध्रा हूनाः किराताश् च पुलिन्दाः पुक्कशास् तथा
अभीरा यवनाः कङ्काः खशाद्याः पाप-योणयः
(Sanatakumara Sahmita - Sloka 39)
Translation : अंध्र, हुण, किरात, पुलिंद, पुक्कश, अहीर, यवन, कंक, खस और सभी अन्य पापयोनि से उत्पन्न होने वाले भी मंत्र जप के लिए योग्य हैं।
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे ।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥ (Ramcharitmanas 7:130)
Translation अहीर, यवन, किरात, खस, श्वपच (चाण्डाल) आदि जो अत्यंत पाप रूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्री रामजी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥
किरात- हूणान्ध्र- पुलिन्द-पुक्कश आभीर- कङ्क यवनाः खशादयाः।
येन्ये च पापा यद्-अपाश्रयाश्रयाः शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः।।
(Srimad Bhagavatam 2:4:18)
Translation: किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, अहीर, कङ्क, यवन और खश तथा अन्य पापीजन भी जिनके आश्रयसे शुद्ध हो जाते हैं, उन भगवान् विष्णु को नमस्कार है ॥
ब्राह्मणादुप्रकन्यायामावृतो नाम जायते ।
आभीरोऽम्बष्ठकन्यायामायोगव्यां तु धिग्वणः ॥ १५ ॥
(Manusmriti 10:15)
Translation: उग्र कन्या (क्षत्रिय से शूद्रा में उत्पन्न कन्या को उग्रा कहते हैं) में ब्राह्मण से उत्पन्न बालक को आवृत, अम्बष्ठ (ब्राह्मण से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) कन्या में ब्राह्मण से उत्पन्न पुत्र अहीर और आयोगवी कन्या (शूद्र से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) से उत्पन्न पुत्र को धिग्वण कहते हैं।
अन्त्यजा अपि नो कर्म यत्कुर्वन्ति विगर्हितम् आभीरा ।
स्तच्च कुर्वति तत्किमेतत्त्वया कृतम् ॥ ३९ ॥
(Skanda Purana: Nagarkhand: Adhyaya 192 Sloka 39)
Translation: अन्यज जाति के लोग भी जो घृणित कर्म नहीं करते अहीर जाति के लोग वह कर्म करते हैं।
आभीरैर्दस्युभिः सार्धं संगोऽभूदग्निशर्मणः ।
आगच्छति पथा तेन यस्तं हंति स पापकृत् ॥ ७ ॥
(Skanda Puran: Khanda 5:Avanti Kshetra Mahatmyam : Adhyay 24: Sloka 7)
Translation : उस जंगल में अहीर जाति के कुछ लुटेरे रहते थे। उन्हीं के साथ अग्निशर्मण की संगति हो गयी। उसके बाद बन के मार्ग में आने वाले लोकों को वह पापी मारने लगा।
उग्रदर्शनकर्माणो बहवस्तत्र दस्यवः ।
आभीरप्रमुखाः पापाः पिबन्ति सलिलं मम ॥ ३३ ॥
तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पापकर्मभिः ।
अमोघः क्रियतां राम अयं तत्र शरोत्तमः ॥ ३४ ॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मनः ।
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागरदर्शनात् ॥ ३५ ॥
(Valmiki Ramayan -Yudhkand: Sarg22: Shlok 33-35)
Translation : वहाँ अहीर आदि जातियों के बहुत-से मनुष्य निवास करते हैं, जिनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं। वे सब-के-सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं ॥ ३३ ॥ उन पापाचारियों का स्पर्श मुझे प्राप्त होता रहता है, इस पाप को मैं नहीं सह सकता। श्रीराम ! आप अपने इस उत्तम बाण को वहीं सफल कीजिये ॥ ३४ ॥ महामना समुद्र का यह वचन सुनकर सागर के दिखाये अनुसार उसी देश में श्रीरामचन्द्रजी ने वह अत्यन्त प्रज्वलित बाण छोड़ दिया ॥ ३५ ॥
शूद्राभीरगणाश्चैव ये चाश्रित्य सरस्वतीम्।
वर्तयन्ति च ये मत्स्यैर्ये च पर्वतवासिनः।। १०।।
(Mahabharata -Sabhaparva:Adhyay 35:Shlok 10)
Translation : सरस्वती नदी के तट पर रहने वाले शूद्र अहीर गण थे। मत्यस्यगण के पास रहने वाले और पर्वतवासी इन सबको नकुल ने वश में कर लिया ।
यादव महिलाओं के साथ अहीरों ने किया बलात्कार
ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतसः
आभीरा मंत्रयामासः समेत्याशुभदर्शन का "
प्रेक्षतस्तवेव पार्थस्य वृषणयन्धकवरस्त्रीय
मुरादाय ते मल्लेछा समन्ताजज्नमेय् ।
(Mahabharata: Mausalparva: Adhyay 7 Shlok -47,63)
Translation: लोभ से उनकी विवेक शक्ति नष्ठ हो गयी, उन अशुभदर्शी पापाचारी अहीरो ने परस्पर मिलकर हमले की सलाह की। अर्जुन देखता ही रह गया, वह म्लेच्छ डाकू (अहीर) सब ओर से यदुवंशी - वृष्णिवंश और अन्धकवंश कि सुंदर स्त्रियों पर टूट पड़े।