भूमध्यसागरी या द्राविड़ जाति
भारत के आदिवासियों में तीन प्रमुख प्रजातियों (नीग्रिटो, पूर्व-द्राविड़ और मंगोल) के तत्त्व ही अधिक हैं। इनके अतिरिक्त साधारण जनसंख्या मुख्यत: भूमध्यसागरीय, एल्पो-दिनारिक और नॉर्डिक प्रजातियों से बनी है। इनके अतिरिक्त साधारण समूह सबसे बड़ा है। इस प्रजाति की कोई एक किस्म नहीं वरन् अनेक किस्में हैं, जो लम्बे सिर, काले रंग और अपनी ऊँचाई द्वारा पहचानी जाती है। भारत में इस प्रजाति की तीन किस्में मिलती हैं।
(अ) प्राचीन भूमध्यसागरीय लोग काले या गहरे भूरे रंग और लम्बे सिर वाले होते हैं। लम्बा चेहरा, लहरियेदार बाल, चौड़ी नाक, मध्यम कद और चेहरे और शरीर पर कम बाल आदि इनकी अन्य विशेषताएं हैं। दक्षिण भारत के तेलुगु और तमिल ब्राह्मणों में इस प्रजाति का अत्यधिक प्रभाव देखा जाता है।
(ब) भूमध्यसागरीय प्रजाति को ही भारत की सिन्धु घाटी सभ्यता को जन्म देने का श्रेय है। 2500 ईसा पूर्व के लगभग जब आर्य भाषा-भाषी आक्रमणकारी उत्तरी ईराक से ईरान होते हुए गंगा के मैदान में आए तो ये लोग इधर-उधर फैलते गए। आज उत्तरी भारत की जनसंख्या में यही तत्त्व सबसे अधिक विद्यमान है। इस प्रजाति के लोग पंजाब, कश्मीर, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में फैले हुए हैं। भारत के धनगर, मराठा और उत्तर प्रदेश, केरल, महाराष्ट्र और मालाबार के ब्राह्मण इस जाति के प्रतिनिधित्व स्वरूप हैं। ये लोग मध्यम से लेकर लम्बे कद के होते हैं। इनकी नाक संकरी, परन्तु दाढ़ी उन्नत होती है। चेहरा और सिर प्राय: लम्बा और काला रंग अथवा भूरा होता है। शरीर पर घने बाल, बड़ी खुली आंखें, आंखों का रंग गहरा भूरा तथा काला, लहरदार बाल अथवा पतला शरीर इनकी अन्य विशेषताएं हैं।
इस प्रजाति ने सिन्धु घाटी सभ्यता को अपनाया और उन्नत किया। वर्तमान भारतीय धर्म और संस्कृति का अधिकांश इन्हीं लोगों के द्वारा निर्मित है। सामान्य पालतु पशु, यातायात, वस्त्र तथा आभूषण, भवन निर्माण कला, ईटों का प्रयोग और शहरों की रचना आदि इन्हीं लोगों द्वारा प्रचलित किए गए हैं। भारतीय लिपि और खगोलशास्त्र में भी इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
(स) पूर्वी अथवा सैमेटिक प्रजाति का उदभव स्थान टर्की और अरब रहा है। यहां से यह प्रजाति भारत की ओर आई। यह प्रजाति भूमध्यसागरीय प्रजाति से बहुत कुछ मिलती-जुलती है, किन्तु इसकी नाक की बनावट में थोड़ा अन्तर पाया जाता है। इन लोगों की नाक लम्बी और नतोदर होती है। भारत में ये लोग पंजाब, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाए जाते हैं।
ये लोग नव पाषाण युग की सभ्यता लेकर भारत आए थे। ये पत्थरों को घिसकर उनके धारदार औजार बनाते थे। कुदाली से खोदकर खेती करते थे, कुम्हार के चाक से मिट्टी के गोल घड़े, बर्तन आदि बनाते थे। ये वस्तुएं भारत को इन लोगों की देन मानी जाती हैं। इस प्रजाति की भाषा के अनेक शब्द भारत की प्रचलित भाषाओं में पाए जाते हैं। धान, केला, नारियल, बैंगन, पान, सुपारी, नीबू, जामुन, कपास आदि इसी प्रजाति की देन हैं। इसी प्रजाति ने हाथी को पालतू बनाया। सांस्कृतिक क्षेत्र में भी इसी प्रजाति ने भारत को अनेक बातें दी हैं। पान-सुपारी का व्यवहार तथा महोत्सव में सिन्दूर और हल्दी का उपयोग इसी प्रजाति से किया गया है। पुनर्जन्मका विचार, ब्रह्माण्ड और सृष्टि की उत्पत्ति सम्बन्धी कई दन्तकथाएं, पत्थर को देवता बनाकर पूजना, नाग, मगर, बन्दर आदि पशुओं की पूजा, वस्तुओं के वर्जन का विचार आदि सब आदि-द्राविड़ों की देन हैं। चन्द्रमाके हिसाब से तिथि का परिगणन भी इसी सभ्यता की देन है।
भारतीय संस्कृति को इनकी देन बहुत अधिक है। मिट्टी के बर्तन बनाना, तीर-कमान चलाना, देशी नावें बनाना, मोर, घोड़े, टट्टू आदि पशुओं को पालना, गन्ने के रस से शक्कर बनाना, कौड़ी के अनुसार प्रत्येक वस्तु को बीस की संख्या से गिनना, विवाह आदि अवसर पर कंकुम और हल्दी का प्रयोग करना भी इन्होंने भारत को दिया है। पाषाण युग की स्मृति को बनाए रखने के लिए पत्थर को देवता मानकर उनकी पूजा करना, उसे सिन्दूर और चन्दन लगाना, उसके सम्मुख धूप-दीप जलाना, घंटा-घड़ियाल बजाना, उसके समक्ष नाच-गान करना, मूर्ति को भोग लगाना और उसके ऊपर चढ़े भोग को प्रसाद के रूप में बांटना। ये सभी भारत को इन्हीं लोगों की देन है। इनके समय स्त्रियां कम थीं, अत: इन्होंने यहां की स्त्रियों से विवाह कर उनकी संस्कृति को भी अपना लिया। शिवलिंग की पूजा भी आरम्भ हो गई। योग क्रियाएं, दवाइयों का उपयोग, नगर निर्माण की सभ्यता, उच्च श्रेणी की खेती करने के ढंग, सुधरे ढंग की नावें, युद्ध में प्रवीणता, वस्त्र बुनना एवं कातना, औजारों का निपुणता से प्रयोग, सर्प और पशुओं एवं वृक्षों की आत्माओं की पूजा, मातृ शक्ति का आदर, विवाह के रीति-रिवाज भी इन्हीं लोगों की देन है।
Comments
Post a Comment