पानिपत कि आखरी जंग ! (14 जनवरी1761)

पानिपत कि आखरी जंग !
(14 जनवरी1761)
खुन से लाल हुई थी धरती
ऊजड गये थे मांगोंसे सिदूर
फुट गये थे हजारो कंगण
सुने हो गये थे कितने आंगण !
केहर तुट पडा था
पानिपत मे मराठा खडा था
उत्तरी हिंद मे अब्दाली का
झंडा गडा था
वतन कि आबरु बचाने
भिषण संग्राम छिडा था ।
दिल्ली का तख्त बचाने
दख्खन का मराठा
दौडा चला आया था
लाज हिमालय की बचाने
सह्याद्री पर्वत चला आया था ।
भाऊ सदाशिव, विश्वास के संग
चले जानकोजी अब्दाली को करने भंग
महादजी अंचूरकर विंचूरकर
दामाजी, समशेर बहाद्दर जैसे विर
चले दूश्मन का सिना चिर ।
भगवे परचम तले एक पठान
खुन से वहा नहाया था
ईब्राहीम के आग उगलती तोफो ने
अफगानों के जिस्म को जलाया था ।
मराठा रथी महारथी
रणक्षेत्र मे कुद पडे थे
पानीपत के कुरुक्षेत्रमे
भयानक युध्द लढ रहे थे ।
पानिपत का कण कण
धन्य हो रहा था
रक्त कि अविरत धारा से
रुद्र का अभिषेक हो रहा था ।
पर नियती ने कुछ और तय किया था
इतिहास का सुनेहरा पन्ना आसुवोंसे भिग रहा था
दो मोती, सत्ताईस मोहरे, रुपये, सिक्के
सब जंग की सुलगती आग से पिघल गये थे
इतिहास के पन्नों को शहादत से पाक कर गये थे ।
थे वो विरों के विर भारत माता के पुत्र महान
वतन कि आबरू बचाने लुटादी अपनी जान
पानिपत कि आखरी जंग विरों कि कहानी हे
करके उनका गुणगान धन्य अकबर कि जुबानी हे |
- विरों का करु सदा गुणगान
वतन परस्त अकबर महान ।

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