The Journey Of The Aryans(आर्यों का प्रवास)


The Journey Of The Aryans(आर्यों का प्रवास)

इस लेख में मैं केवल भौगोलिक आधार पर यह सिद्ध करने की कोशिश करूँगा कि आर्य लोग भारतवर्ष में काबुल की ओर से न आकर काश्मीर की राह से आये और सिन्धु-नदी के किनारे-किनारे आकर सारे पंजाब में बस गये।ईरानी शाखा को सहज मार्ग मिला और भारतीय शाखा को पहाड़ी प्रदेशों की शरण लेनी पड़ी। काबुल के मार्ग से वे कभी नहीं आये, बल्कि भारत में पदार्पण के बाद वे काबुल की ओर भी फैलेI तात्पर्य यह कि भारतीय शाखा को सिवा मानसरोवर से जाकर तिब्बत तक फैलने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं था।आर्य किस समय वे भारत में आये, इसका निर्णय करना नितान्त दुष्कर है। कम-से-कम ५,००० वर्ष पूर्व तो महाभारत का समय है, जिस समय आर्य बहुत पुराने पड़ गये थे। ऋग्वेद की ऋचायें सिन्धु और सरस्वती के किनारे भी रची गयीं।कम-से-कम इस समय यह सिद्ध करने का पर्याप्त प्रमाण नहीं मिलता कि भारत से ही आर्य लोग अन्यत्र फैले।

पंजाब से वे पश्चिमोत्तर की ओर बढ़ते-बढ़ते काबुल नदी के आस-पास तक पहुँच गये और वहीं पर आर्यों की उस शाखा से उनकी मुठभेड़ हुई, जो ऑक्सस-नदी के पश्चिमोत्तर-प्रदेश Airya nem Vaejo (अरियानम् व्वज) अर्थात् ’आर्यानां व्रजः’ से आर्यों की भारतीय शाखा से विलग हो गयी । उनका भारतीय आर्यों से मतैक्य नहीं था, तथा वे भारतीय आर्यों को देव-पूजक कहने लगे थे। भारतीय आर्य उन्हें ’असुर’ कह कर पुकारते थे। ऋग्वेद में ’असुर’ शब्द का अर्थ वही नहीं है, जो आज समझा जाता है। पहले ’असुं राति लाति ददाति इति असुरः’ अर्थात् देवता के अर्थ में ’असुर’ शब्द प्रयुक्त होता था।

ऐरल-सागर के ऐरावत से साम्य होने के कारण संभव है।देखकर आश्चर्य होता है कि उत्तर-ध्रुव से आरम्भ कर मध्य-एशिया के प्रदेश से लेकर फ़ारस या अफ़गानिस्थान और भारतवर्ष की अर्वली-पर्वत-श्रेणी तक ऐसे तत्सम शब्दों का ताँता लगा हुआ है। यूराल-नदी के तटवर्ती प्रदेशों से होते हुए ऐरल की ओर कुछ लोग बढ़ गये हों और कुछ आर्य काकेसस से होते हुए फिर भी समयान्तर में कास्पियन-सागर के पूर्ववर्ती प्रदेशों की ओर आक्सस (अक्षु) नदी के तटों पर ऐरल-सागर तक फैल गये हों। चूँकि आर्यों की दोनों शाखाएँ इसी आक्सस नदी के तटवर्ती प्रदेशों से अलग हुई बतायी जाती हैं और चूँकि ईरानी आर्यों की प्रथम भूमि ’आर्यानां व्रजः’ है, इसलिये ’आर्यानां व्रजः’ का आक्सस-नदी के उत्तर-पश्चिम की ओर होना निश्चित किया गया है।

ईरानी शाखा यानी भारतीय शाखा से अलग हो पहले पहल ’आर्यानां व्रजः’ (Aryanem vaejo) में ही रही। इसका अर्थ है कि आर्यों की भूमि। अस्तु, ज़ेन्दा अवेस्ता ’आर्यानां व्रजः’ से मर्व, बल्ख, ईरान, काबुल और सप्तसिन्धु का निर्देश देता है। इससे यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ईरानी शाखा यानी पारसी, आर्यों से विलग हो, ईरान की अधित्यका को तय करते हुए काबुल की राह से सप्तसिन्धु तक फैल गये। भारतीय शाखा भी काबुल की राह से आयी, यह अत्यन्त ही सन्देहास्पद सिद्धान्त है। तात्पर्य यह कि भारतीय शाखा को सिवा मानसरोवर से जाकर तिब्बत तक फैलने के दूसरा कोई चारा नहीं था। 

ऋग्वेद के सूक्तों में ईरान की अधित्यका या काबुल के पश्चिमी प्रदेशों का आभासन मिलकर हिमालयोत्तर-प्रदेश की स्मृति का आभास मिलता है-ऋग्वेद के अध्ययन से इस बात का पता चल जायगा कि जिन प्राकृतिक दृश्यों को देखकर आर्य-ऋषि मन्त्रमुग्ध हो अपनी सरल परिमार्जित कविता की अंजलि समर्पित करते थे, वे प्राकृतिक दृश्य हिमवन्त के इस पार या उस पार ही सुलभ हैं। लोकमान्य जिन सूक्त या ऋचाओं के आधार पर आर्यों को हिमालयोत्तर-प्रदेशों के आदि-निवासी बताते हैं, वे सूक्त उनकी स्मृति के जीते जागते चित्र हैं। सम्भवतः आज कोई भी लो. तिलक के सिद्धान्तों का खण्डन सफलतापूर्वक नहीं कर सकता। चाहे आर्य पहले-पहल उत्तर ध्रुव के निकटवर्ती वृत्त के निवासी रहे हों चाहे और इधर आकर साइबेरिया के मैदान में बसे हों, यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि वे आये उसी दिशा से और अन्त तक, आर्यावर्त में बस जाने तक, अपनी पुण्य-स्मृति को ताज़ा रखते गये। उत्तर-कुरु के भौगोलिक निर्देश से यह स्पष्ट ही प्रकट हो जाता है कि आर्य लोग अन्त तक ’कुरु’ शब्द से प्रेम रखते गयेI

दोनों शाखाओं के विद्रोह पर दृढ़ विश्वास तब और भी हो जाता है, जब हम यह देखते हैं कि इन्द्र, जो भारतीय शाखा के आराध्य देव हैं, पारसियों के लिये एक दुर्दान्त दैत्य हैं। एक का दूसरे को विधर्मी समझना तथा एक का दूसरे के इष्टदेव को दैत्य बनाना धार्मिक असहिष्णुता की पराकाष्ठा है।



Comments

Popular posts from this blog

धनगर समाजातील आडनावे-

List of Hatkar clans

About 108 clans(108 कुळ/कुल) of Dhangars and 22 sub castes (22 पोट जाती).